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किंतु अनेकांतवाद निश्चित रूप से तत्त्वमीमांसीय सिद्धांत ही है क्योंकि यह वस्तु के विभिन्न पक्षों को उनकी विभिन्नता में वस्तुगत ही मानता है, और स्याद्वाद इन पक्षों की विभिन्नता का उसी रूप में कथन करने की विधि है। किंतु तब प्रश्न होता है कि जब हम कहते हैं कि 'वस्तु इस अपेक्षा से ध्रुव और इस अपेक्षा से परिवर्तमान है, इस अपेक्षा से अस्ति और इस अपेक्षा से अनम्ति है' और कि 'वह अवक्तव्य भी है', अर्थात् 'अस्ति-अनस्ति उभयतः भी है' तब हम वस्तु के निरपेक्ष ग्रहण को पूर्वगृहीत किए बिना यह कैसे कह सकते हैं? हाथी के उदाहरण में भी वही बात है, कि कोई सूंड को ही हाथी मान रहा है और दूसरा पैर को ही, किंतु यह भ्रांति है—इसे वही जान सकता है जो हाथी को उसकी समग्रता में जानता हो।
अनेकांत और स्याद्वाद कैसे हो अस्पष्टता का निवारण
यशदेव शल्य
अनेकांतवाद और स्याद्वाद सिद्धांत प्रम किया है, अर्थात् सापेक्ष अनेकतावाद । इसका भी सिद्धांतों को लेकर जैन विद्वानों में भी और यही अर्थ बनता है कि वस्तु मनुष्य के लिए केवल पक्षतः ही जैनेतर विद्वानों में भी, गहरी अस्पष्टता है। यह अस्पष्टता गम्य होती और हो सकती है, अपनी समग्रता में नहीं, क्योंकि दर्शाने के लिए हम तीन उद्धरण देंगे और उनकी आलोचना मनुष्य की ज्ञान शक्ति, बल्कि कहें ज्ञान के उपकरण, के द्वारा उस अस्पष्टता का निवारण करने का प्रयत्न करेंगे। परिमित हैं और वस्तु का आकार अपरिमित, या कम-से-कम सर्वप्रथम सर्वदर्शन संग्रह के श्रीमाधवाचार्य का प्रतिपादन इतने बड़े परिमाण का कि वह मनुष्य को अपनी पूर्णता में गम्य देखें— 'जैन लोगों के अनुसार हमें किसी वस्तु का ज्ञान पूरा नहीं हो सकता। इस दृष्टि की व्याख्या वे इस प्रकार करते नहीं होता। किसी वस्तु के कई पहलू होते हैं, उनमें सब हैं— 'इसे हम उपनिषदों के आत्यंतिक निरपेक्षतावाद या पहलुओं का एक साथ ज्ञान प्राप्त करना केवली के लिए ही अद्वयवाद (एब्सोल्यूटिज्म) और बौद्धों के पूर्ण अनेकांतवाद संभव होता है, शेष के लिए नहीं, क्योंकि अकेवली जन का के विपरीत सापेक्ष अनेकांतवाद कह सकते हैं। जैन सब ज्ञान एकांगी ही हो सकता है (जैनों के अनुसार) दार्शनिकों वस्तुओं को अनेकात्मक मानते हैं अथवा दूसरे शब्दों में, वे में विवाद का यही कारण है। परमार्थ के केवल एक पक्ष का मानते हैं कि कोई निरपेक्ष कथन संभव नहीं है, क्योंकि सब अवलोकन कर सकने के कारण वे केवल एक पक्ष को ही जान कथन कुछ परिस्थितियों और कुछ सीमाओं में ही किए जा सकते हैं। इसे जैन लोग 'नय' कहते हैं। नय का विषय एकदेश सकते हैं। उदाहरणतः एक स्वर्ण कलश द्रव्य के रूप में एक विशिष्ट होता है (न्यायावतारसूत्र, 29 ) ।" इसके निदर्श रूप परमाणु संघात है, किसी दूसरे प्रकार का, जैसे आकाश के में जैनों में हाथी के सूंड, पैर आदि को ही हाथी समझने का प्रकार का द्रव्य नहीं है। अर्थात् स्वर्ण कलश केवल एक अर्थ उदाहरण प्रचलित है। इसका अर्थ है कि अनेकांतवाद मनुष्य में द्रव्य है, सब अर्थों में नहीं.... आदि । " अब, इस उद्धरण को के ज्ञान को वस्तुस्वरूप को, उसकी समग्रता में ग्रहण में ध्यान से पढ़ें तो आप एक गहरा व्यामिश्र पाएंगे। यहां वस्तुअसमर्थ, केवल अंश ग्राही ही मानता है और इस प्रकार ज्ञान स्वरूप और उसके ज्ञान को व्यामिश्रित किया जा रहा है। में निराग्रही जिज्ञासुभाव का परामर्श देता है। 'कलश किस प्रकार का द्रव्य है, यह उसके स्वरूप के संबंध में कथन है, किंतु 'वह किस-किस प्रकार का द्रव्य नहीं है' यह उसके स्वरूप विषयक बात नहीं है, यह उसके ज्ञान विषयक
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दूसरा उद्धरण प्रोफेसर सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त से देखें । दासगुप्त ने 'अनेकांतवाद' का अंग्रेजी में अनुवाद 'रेलेटिव
22 • अनेकांत विशेष
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स्वर्ण जयंती वर्ष
जैन भारती
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मार्च - मई, 2002
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