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नीम सामान्य व्यक्ति को कड़वा लगता है। वही रोगी के लिए ओषधि भी है। अतः नीम के संबंध में कोई एक धारणा बनाकर किसी दूसरे गुण का विरोध करना बेमानी है। सामान्य नीम की जब यह स्थिति है तो संसार के अनंत पदार्थों; अनंत धर्मों के स्वरूप को जानकर उनका आग्रहपूर्वक कथन करना संभव नहीं है। महावीर ने इसे गहराई से समझा था । अतः वे मनुष्य तक ही सीमित नहीं रहे। प्राणी मात्र के स्पंदन की सापेक्षता को भी उन्होंने स्थान दिया । मनुष्य की भांति एक सामान्य प्राणी भी जीने का अधिकार रखता है अपने साधनों द्वारा उसे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। यह महावीर के स्याद्वाद की फलश्रुति है।
महावीर अनेकांतवाद व स्याद्वाद से उन गलत धारणाओं को दूर कर देना चाहते थे, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में बाधक थीं। उनके युग में ऐकांतिक दृष्टि से यह कहा जा रहा था कि जगत शाश्वत है अथवा क्षणिक है। इससे वास्तविक जगत का स्वरूप खंडित हो रहा था । मनुष्य का पुरुषार्थ कुंठित होने लगा था — नियतिवाद के हाथों । अतः महावीर ने आत्मा, परमात्मा और जगत—इन तीनों के स्वरूप का ऐसा यथार्थ सामने रख दिया कि जिससे व्यक्ति अपनी राह का स्वयं निर्णायक बन सके। अपूर्व थी महावीर की यह देन । अनेकांत व स्याद्वाद के संबंध में महावीर ने जो कहा वह उनके जीवन से भी प्रकट हुआ है। वे अपने जीवन में कभी किसी की बाधा नहीं बने। जगत में रहते हुए किसी अन्य के स्वार्थ से न टकराना कम लोगों के जीवन में सध पाता है। महावीर के अनुसार यह टकराहट अधूरे ज्ञान के अहंकार से होती है, प्रमाद व अविवेक से होती है। अतः अप्रमादी होकर विवेकपूर्वक आचरण करने से ही अनेकांत जीवन में आ पाता है। अनेकांत दृष्टि से ही सत्य का साक्षात्कार संभव है।
महावीर द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद में वस्तु के अनंत धर्मात्मक होने के कारण उसे अवक्तव्य कहा गया है। मुख्य की अपेक्षा से गौण को अकथनीय कहा गया है। वेदांत दर्शन में सत्य को अनिर्वचनीय और बौद्ध दर्शन में उसे शून्य व विभज्यवाद कहा गया है। अन्य भारतीय दार्शनिकों के अतिरिक्त प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन व दार्शनिक वर्टन रसेल के सापेक्षवाद के सिद्धांत भी महावीर के स्याद्वाद से मिलते-जुलते हैं महावीर ने कहा था कि वस्तु के कण-कण को जानो, तब उसके स्वरूप को कहो । ज्ञान की यह प्रक्रिया आज के विज्ञान में भी है इसका अर्थ है कि स्याद्वाद का
मार्च - मई, 2002
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चिंतन संशयवाद नहीं है। अपितु, इसके द्वारा मिथ्या मान्यताओं की अस्वीकृति और वस्तु के यथार्थ पक्षों की स्वीकृति होती है। विचार के क्षेत्र में इससे जो सहिष्णुता विकसित होती है वह दीनता व जी हुजूरी नहीं है, बल्कि मिथ्या अहंकार के विसर्जन की प्रक्रिया है।
दर्शन व चिंतन के क्षेत्र में अनेकांत व स्याद्वाद की जितनी आवश्यकता है, उतनी ही व्यावहारिक दैनिक जीवन में । वस्तुतः इस विचारधारा से अच्छे-बुरे की पहचान जागृत होती है। अनुभव बताता है कि एकांत विग्रह है, फूट है जबकि अनेकांत मैत्री है, संधि है। इसे यौ भी समझ यों सकते हैं कि जिस प्रकार सही मार्ग पर चलने के लिए कुछ अंतरराष्ट्रीय यातायात संकेत बने हुए हैं, पथिक उनके अनुसरण से ठीक-ठीक चलकर अपने गंतव्य पर पहुंच जाते हैं। उसी प्रकार स्वस्थ चिंतन के मार्ग पर चलने के लिए स्याद्वाद द्वारा महावीर ने सप्तभंगीरूपी सात संकेतों की रचना की है इनका अनुगमन करने पर किसी बौद्धिक दुर्घटना की आशंका नहीं रह जाती। अतः बौद्धिक शोषण
का समाधान है स्याद्वाद ।
महावीर के स्याद्वाद से फलित होता है कि हम अपने क्षेत्र में दूसरों के लिए भी स्थान रखें। अतिथि के स्वागत के लिए हमारे दरवाजे हमेशा खुले हों। हम प्रायः बचपन से कागज पर हाशिया छोड़ कर लिखते आए हैं, ताकि अपने लिखे हुए पर कभी संशोधन की गुंजाइश बनी रहे। जो हमने अधूरा लिखा है, वह पूर्णता पा सके। महावीर का स्याद्वाद जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें हाशिया छोड़ने का संदेश देता है। चाहे हम ज्ञान संग्रह करें अथवा धन व यश का, प्रत्येक के साथ सापेक्षता आवश्यक है। संविभाग की समझ जागृत होना ही महावीर के अनेकांत को समझना है। यही हमारे चरित्र की कुंजी है । अनेकांत हमारे चिंतन को निर्दोष करता है निर्मल चिंतन से निर्दोष भाषा का व्यवहार होता है। सापेक्ष भाषा व्यवहार में अहिंसा प्रकट करती है अहिंसक वृत्ति से अनावश्यक संग्रह और किसी का शोषण नहीं हो सकता। जीवन अपरिग्रही हो जाता है। इस तरह आत्मशोधन की प्रक्रिया का मूलमंत्र है महावीर का स्याद्वाद । जैनाचार्य कहते हैं कि संसार के उस एकमात्र गुरु अनेकांतवाद को मेरा नमस्कार है, जिसके बिना इस लोक का कोई व्यवहार संभव नहीं है। यथा
जेण विणा लोयस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।।
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
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अनेकांत विशेष • 113
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