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वैदिक साहित्य में भाषिक अनेकांठ
डॉ. हरिशंकर पाण्डेय
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दार्शनिक परंपरा में अनेकांत का स्वरूप है-अनेक धर्मात्मक अथवा अनंत धर्मात्मक
वस्तु । परस्पर विरोधी गुणों का समवाय अनेकांत है। वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य में । अनेकांत से तात्पर्य है एक वस्तु में अनेक विरोधी-अविरोधी गुणों का समवाय । विषय।
एवं भाषा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक साहित्य में अनेक ऐसे स्थल मिलते हैं, जहां एक ही वस्तु में अनेक विरोधी-अविरोधी गुणों की उपस्थिति देखी जा सकती है।
दिक साहित्य की प्राचीन एवं विशाल विरासत 2. एकं वा इदं वि बभूव सर्वम् (ऋग्वेद 8.58.2)
है। संसार का आद्यग्रंथ ऋग्वेद माना जाता है, वह एक रूप होकर भी सभी रूपों वाला है। ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद ये चार वेद हैं। इनकी अनेक
3. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति (ऋग्वेद शाखाएं हैं। वेदों के बाद ब्राह्मण साहित्य आता है जो अत्यंत
1.164.46) विशाल है। आरण्यक और उपनिषद् वैदिक साहित्य के अंतर्गत ही परिगणित हैं।
वह एक है, विद्वान लोग नाना रूपों में वर्णन करते हैं।
तात्पर्य है कि वह एक भी है अनेक भी। वेदों के छह अंग हैं—शिक्षा, कल्प, निरुक्त । व्याकरण, छंद और ज्योतिष। इन्हीं सबके परिप्रेक्ष्य में 4. एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति (ऋग्वेद भाषिक अनेकांत का प्रतिपादन हुआ है।
10.114.5) भाषिक अनेकांत का अर्थ
वह एक है, विद्वान लोग नाना रूपों वाला कहते हैं। दार्शनिक परंपरा में अनेकांत का स्वरूप है—अनेक 5. एकं एवाग्निर्बहुधा समिद्धः (ऋग्वेद 8.58.2) धर्मात्मक अथवा अनंत धर्मात्मक वस्तु। परस्पर विरोधी वह एक अग्नि नाना रूपों में प्रज्वलित है। गुणों का समवाय अनेकांत है। वैदिक साहित्य के परिप्रेक्ष्य
6. ऋग्वेद के एक मंत्र 'अदिति' में अनेक विरोधीमें अनेकांत से तात्पर्य है एक वस्तु में अनेक विरोधी
अविरोधी धर्मों की उपस्थापना की गई है। वह मंत्र इस अविरोधी गुणों का समवाय। विषय एवं भाषा के परिप्रेक्ष्य में
प्रकार हैवैदिक साहित्य में अनेक ऐसे स्थल मिलते हैं, जहां एक ही वस्तु में अनेक विरोधी-अविरोधी गणों की उपस्थिति देखी
अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षम् जा सकती है।
अदितिर्माता स पिता स पुत्रः। वेदों में भाषिक अनेकांत
विश्वेदेवा अदितिः पञ्चजना वैदिक भाषा में अनेक स्थल मिलते हैं जहां पर अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्।। (ऋग्वेद 1.89.16) भाषिक वैदिक भाषा अनेकांत के उदाहरण विद्यमान हैं। कुछ अर्थात् अदिति ही प्रकाशमान स्वर्ग है, अंतरिक्ष है, ऐसे प्रसंग यहां प्रस्तुत हैं जिनमें परस्पर विरोधाविरोध धर्मों जगत की माता है. पिता है. पत्र है। सभी देव अदिति हैं। जो का एकत्र समवाय उपस्थापित है
कुछ भी उत्पन्न हुआ वह अदिति है। यहां एक ही वस्तु 1. अस्मद् हृदो भूरिजन्मा विचष्टे (ऋग्वेद 10.5.1) अदिति माता, पिता, पुत्र, द्यौ, स्वर्ग, धरती आदि विभिन्न वह ईश एक है लेकिन नाना रूपों में प्रकट होता है। विरुद्धाविरुद्ध धर्मों के धारक के रूप में उपस्थित है।
स्वर्ण जयंती वर्ष 114. अनेकांत विशेष | जैन भारती
मार्च-मई, 2002
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