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रखकर उन्होंने जड़ और चेतन आदि छह द्रव्यों की व्याख्या अनेक सूतों के संयोग को कपड़ा कहते हैं। एक व्यक्ति को की है। मति, श्रुति, केवलज्ञान आदि पांच ज्ञानों के स्वरूप कोई सभा या संघ नहीं कहता। उनके समुदाय को ही को समझाया है। केवलज्ञान द्वारा हम सत्य को पूर्णतः जान समिति, सभा, संघ या दल आदि कहा जाता है। एक-एक पाते हैं। अतः सामान्य ज्ञान के रहते हम वस्तु को पूर्णतः व्यक्ति मिलकर जाति और अनेक जातियां मिलकर देश जानने का दावा नहीं कर सकते। जानकर भी उसे सभी बनते हैं। दृष्टियों से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इसलिए सापेक्ष जिस प्रकार समद्र के सदभाव में ही उसकी अनंत कथन की अनिवार्यता है। सत्य की खोज की यह पगडंडी है। बिंदओं की सत्ता बनती है और उसके अभाव में उन बिंदुओं
अनेकांत-दर्शन महावीर की सत्य के प्रति निष्ठा का की सत्ता नहीं बनती, उसी प्रकार अनेकांत रूप वस्तु के परिचायक है। उनके संपूर्ण और यथार्थ ज्ञान का द्योतक। सद्भाव में ही सर्व एकांत दृष्टियां सिद्ध होती हैं और उसके महावीर की अहिंसा का प्रतिबिंब है-स्याद्वाद। उनके जीवन अभाव में एक भी दृष्टि अपने अस्तित्व को नहीं रख पाती। की साधना रही है कि सत्य का उद्घाटन भी सही हो तथा आचार्य सिद्धसेन अपनी चौथी द्वात्रिंशिका में इसी बात का उसके कथन में भी किसी का विरोध न हो। यह तभी संभव
बहुत ही सुंदर ढंग से प्रतिपादन करते हैं : है जब हम किसी वस्तु का स्वरूप कहते समय उसके अन्य
उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः। पक्ष को भी ध्यान में रखें, तो अपनी बात भी प्रामाणिकता से
न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः।। कहें। स्यात् शब्द के प्रयोग द्वारा यह संभव है। यहां स्यात् का अर्थ है—किसी अपेक्षा से यह वस्तु ऐसी है।
-जिस प्रकार समस्त नदियां समुद्र में सम्मिलित हैं,
उसी तरह समस्त दृष्टियां अनेकांत-समुद्र में मिली हैं। परंतु विश्व की तमाम चीजें अनेकांतमय हैं। अनेकांत का
उन एक-एक में अनेकांत दर्शन नहीं होता। जैसे पृथक्-पृथक् अर्थ है नानाधर्म। अनेक यानी नाना और अंत यानी धर्म और इसलिए नानाधर्म को अनेकांत कहते हैं। अतः प्रत्येक
नदियों में समुद्र नहीं दीखता। वस्तु में नानाधर्म पाए जाने के कारण उसे अनेकांतमय इसे एक अन्य उदाहरण से भी समझा जा सकता है। अथवा अनेकांतस्वरूप कहा गया है। अनेकांतवाद स्वरूपता राजेश एक व्यक्ति है। वह अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है वस्तु में स्वयं है—आरोपित या काल्पनिक नहीं है। एक भी तथा अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है। वह पति है एवं जीजा वस्तु ऐसी नहीं है, जो सर्वथा एकांतस्वरूप (एकधर्मात्मक) भी। मामा है और भानजा भी। अब यदि कोई उसे केवल हो। उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे और आपके प्रत्यक्ष मामा ही माने और अन्य संबंधों को गलत ठहराए तो यह गोचर है, चर और अचर अथवा जीव और अजीव-इन दो राजेश नामक व्यक्ति का सही परिचय नहीं है--इसमें द्रव्यों से युक्त है, वह सामान्य की अपेक्षा एक होता हुआ हठधर्मी है. अज्ञान है। महावीर इस प्रकार के आग्रह को भी इन दो द्रव्यों की अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह वैचारिक हिंसा कहते हैं। अज्ञान से अहिंसा फलित नहीं अनेकांतमय सिद्ध है।
होती। अतः उन्होंने कहा कि स्याद्वाद पद्धति से प्रथम जो जल प्यास को शांत करने, खेती को पैदा करने वैचारिक उदारता उपलब्ध करो। केवल अपनी बात कहना आदि में सहायक होने से प्राणियों का प्राण है--जीवन है, ही पर्याप्त नहीं है, दूसरों को भी अपना दृष्टिकोण रखने का वही बाढ़ लाने, डूबकर मरने आदि में कारण होने से उनका अवसर दो। सत्य के दर्शन तभी होंगे। तभी व्यवहार की घातक भी है। कौन नहीं जानता कि अग्नि कितनी संहारक अहिंसा सार्थक होगी। है, पर वही अग्नि हमारे भोजन बनाने आदि में परम सहायक
सत्य को विभिन्न कोणों से जानना और कहना दर्शन भी है। भूखे को भोजन प्राणदायक है, पर वही भोजन
के क्षेत्र में नई बात नहीं है। किंतु महावीर ने स्याद्वाद के अजीर्ण वाले अथवा मियादी बुखार वाले बीमार आदमी के लिए विष है। मकान, किताब, कपड़ा, सभा, संघ, देश आदि
कथन द्वारा सत्य को जीवन के धरातल पर उतारने का कार्य ये सब अनेकांत ही तो हैं। अकेली ईंटों या चूने-गारे का नाम
किया है। यही उनका वैशिष्ट्य है। हम सभी जानते हैं कि मकान नहीं है। उनके मिलाप का नाम ही मकान है। एक-एक हर वस्तु के कम से कम दो पहलू होते हैं। कोई भी वस्तु न पन्ना किताब नहीं है, नाना पन्नों के समूह का नाम किताब सर्वथा अच्छी होती है और न सर्वथा बुरीहै। एक-एक सूत कपड़ा नहीं कहलाता। ताने-बाने रूप 'दृष्टं किमपि लोकेस्मिन् न निर्दोषं न निर्गुणम् ।'
स्वर्ण जयंती वर्ष जैन भारती
112. अनेकांत विशेष
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मार्च-मई, 2002
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