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'गांधी दर्शन-सिद्धान्त और व्यवहार'
प्रो. डॉ० रघुनाथ गिरि भारतीय चिंतन धारा में गांधीदर्शन को एक युग प्रवर्तक कहा दर्शन कहा जा सकता है क्योंकि गांधीदर्शन में आदर्श और यथार्थ, सिद्धान्त और व्यवहार, व्यक्ति और समाज, ज्ञान और आचरण के समन्वय की जिस भूमिका की स्थापना हुई है वह बहुत काल से भारतीय दार्शनिक चिन्तन में उपेक्षित सा हो गया था। भारतीय दार्शनिक आध्यात्मिक चिन्तन और परम लक्ष्य की प्राप्ति के साधनों की खोज में इतने लीन हो गए थे कि उन्हें अपने चारो ओर का परिवेश और समाज एक प्रकार से विस्मृत सा हो गया था। गांधो दर्शन ने उनकी इस समाधि को तोड़ा है और उन्हें परिवेश और समाज की ओर विचार करने के लिए बाध्य किया है।
गांधीदर्शन में रुचि रखने वालों को इस दर्शन की व्यापकता, गम्भीरता और बहुआयामिता का परिचय सहज में हो जाता है। इस छोटे निबन्ध में गांधी दर्शन के समग्र पक्षों के सैद्धान्तिक और व्यवहारिक पहलुओं पर प्रकाश डालना कथमपि संभव नहीं है यह जानते हुए भी यह प्रयास एक दिग्दर्शन मात्र के लिए ही किया जा रहा है।
- गांधी दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों में 'सत्य', 'अहिंसा', 'सर्वोदय', स्वराज्य या रामराज्य' 'न्यास', ( ट्रस्टीशिप), 'सर्वधर्मसमभाव', 'साधन-साध्य' तथा बेसिक शिक्षा आदि का विचार की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। अतः प्रस्तुत निबन्ध में इनमें से कतिपय के सम्बन्ध में कुछ चर्चा की गयी है।
सत्य :-गांधीदर्शन में 'सत्य' को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। इसके स्वरूप के विषय में जो कुछ वर्णन मिलता है जैसे 'सत्य ईश्वर है' 'सत्य' सबके ऊपर है 'सत्य समस्त नियमों का आधार है' 'सत्य स्वरूपतः स्वयं सिद्ध है' यह अज्ञान के आवरणों से आवृत्त है' यह एक व्यापक चेतना है' इस सत्य की उपासना ही हमारे अस्तित्व का औचित्य है, पूर्ण सत्य की जानकारी असम्भव है' आदि से यह स्पष्ट है कि गांधीदर्शन में सत्य तत्व, ज्ञान और मूल्य' की समष्टि है अर्थात् तत्त्वशास्त्र
परिसंवाद-३
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