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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाए
की दृष्टि से यह परम अद्वैत तत्त्व है। ज्ञान मीमांसा की दृष्टि से यह व्यापक चेतना और समस्त ज्ञान का आधार है तथा मूल्य शास्त्र की दृष्टि से यह समस्त नियमों का आधार है तथा मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है । इस प्रकार इसकी तुलना उपनिषद् के ब्रह्म सत्यं ज्ञानमनन्तम्' से की जा सकती है ।
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मनुस्मृति', श्रीमद्भगवतगीता', पुराणों और योगशास्त्र' आदि में जहाँ सत्य का निरुपण किया गया है वहाँ सत्य को वाणी का धर्म या गुण माना गया है और उसकी दो कसौटियाँ यथार्थता और भूतहितत्व में भूतहितत्व पर अधिक बल दिया गया है । सत्य के ये निरूपण वेद वाक्य 'सत्यं वद' के उपवृंहण से लगते हैं परन्तु गांधीदर्शन का सत्य केवल वाणी की विशेषता मात्र ही नहीं है । यह उपनिषदों के परम तत्त्व के समान हैं तथा ईश्वरवादी धर्मों के समस्त आस्था और विश्वास के आधारभूत ईश्वर भी है । इस सत्य की स्थापना में गांधीदर्शन में निर्विवादिता, निर्विरोधिता और सर्वमान्यता को आधार के रूप में उपस्थित किया गया है । इस प्रकार हम देखते हैं, कि सत्य' गांधी दर्शन में आस्था एवं विश्वास, ज्ञान एवं चिन्तन, इच्छा, क्रिया एवं व्यवहार ( वाणी और आचरण ) सभी का एक मात्र विषय बन जाता है । सत्य की प्राप्ति के उपायों में 'सत्याग्रह' प्रेम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि अनेक साधनों का निरूपण हुआ है जो सामान्यतया स्पष्ट एवं सरल प्रतीत होते हैं किंतु विचार करने पर इनको दुरुहता एवं दुष्करता दृष्टिगोचर होती है ।
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व्यवहार की दृष्टि से उतना
सत्य के सम्बन्ध में ऊपर जो कुछ संकेत किया गया है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि गांधीदर्शन में सत्य एक दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में जितना संगत, रोचक, सर्वांगीण एवं युक्तियुक्त लगता ही दुष्कर कठोर, अज्ञेय और अनावश्यक हो जाता है की आकांक्षा इस प्रकार के परम सत्य की प्राप्ति की नहीं होती, वह तो अवसर के अनुसार तात्कालिक लक्ष्यों ( लाभ और सुख ) को प्राप्त करना चाहता है । यहाँ अवसर के अनुसार ज्ञान, वाणी और आचरण तीनों में वह 'सत्य और असत्य दोनों
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क्योंकि सामान्य जन के जीवन
१. सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम् |''''मनु ४। १३८
२. अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । गीता १७३१५
३. यभूतहितमत्यन्तं तत् सत्यं विद्धि नेतरत् - अग्निपुराण ३७१।७ ४. योगसूत्र व्यासभाष्य । २-३०
परिसंवाद - ३
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