________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावना
रहने पर 'सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि' की स्थिति प्राप्त हो जाती है। सत्य एवं रागद्वेष शून्यवृत्ति के मूल पर स्निग्धभावों को जगाकर करुणा का संचार होने से शुभ मार्ग से वासना का प्रवाह होता है। और यह भावना स्थान प्राप्त करती है
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःखभाग्भवेत् ॥ महात्मागांधी के सत्य का साक्षात्कार का अर्थ अनेकान्त या भेद में अभेद के रूप में हैं। आत्मभाव की एकता से सर्वत्र अभय की भावना रहती है और अभय के रूप में प्राणिमात्र का ग्रहण ही ईर्ष्या-द्वेष का अभाव है। स्व से स्व का द्वेष नहीं होता है। सत्य की भूलभित्ति पर ईया-द्वेष-रागात्मिका हिंसा तो स्वाभाविक है, किन्तु इस उच्चतम आदर्श के उचित अधिकारी के अभाव में अहिंसा पूर्णतः सफल नहीं हो सकी। शंकर, वैष्णव सभी ने पर पीड़ा को हेय समझकर प्रेम और करुणा पर विश्वबन्धुत्व की स्थापना की है। चैतन्य ने भी यह आन्दोलन किया, किन्तु वह व्यक्ति सापेक्ष रहा।
___ गांधीजी ने सार्वभौम प्रचार एवं अनुरूप आचार के द्वारा इस अहिंसा की भावना को मानव मन में स्थिर कर अनुकूल आचार की उचित दीक्षा दी। देश, भाषा, आचार और ज्ञान को मानव का अपरिहार्य चार अंग मानकर मनुष्य को एक अंगी के रूप में स्वीकार किया, जहाँ किसी एक के अभाव से उसको अंगविकल होना पड़ता है। गांधी जी के उपदेश के उपक्रम में देश की एकता एवं उसके अर्थ की अभिन्नता और आत्मा का सार्वभौम स्वरूप सम्पूर्ण विश्व को एक सूत्र में बांधने की शिक्षा देता है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
इस ज्ञान के आधार पर सभी प्राणियों के साथ सद्भावना एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार की दीक्षा ही गांधी की शिक्षा है।
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org