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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भवनाएं
क्योंकि गांधीवाद प्रयोगदर्शन है, अतः वह साधन को ही पर्याप्त मानता है। इसलिए इस सिद्धान्त में सत्यशोध को छोड़कर केवल विवेक के आधार पर सत्य को प्राप्त कर लेना अपर्याप्त समझा जाता है यह ज्ञातव्य है कि समस्त ईश्वरवादियों की भाँति महात्मा गांधी भी मोक्ष को परम पुरुषार्थ मानते हैं। उनके अनुसार मोक्ष का अर्थ है-सत्यस्वरूप हो जाना । शरीर की स्थिति अहंकारमूलक है। अहंकाररहित साधक की अपरोक्ष स्थिति ही उसकी सत्यस्वरूपता है। यही साधक की त्रिकालदर्शिता है। इस तरह सत्यमूर्ति हो जाना ही जीवन्मुक्ति है। महात्मा गांधी साधक की इस अन्तिम अवस्था को शून्यवत् स्थिति कहते हैं। शून्यवत् स्थिति का यह अर्थ नहीं है कि कोई साध्य वस्तु ही नहीं है, जैसा की अनात्मवादी लोग मानते हैं; अपितु साधक की आत्यन्तिक निरहंकार स्थिति उसका अर्थ है। निरहंकारता की स्थिति में समष्टि और व्यष्टि में एकत्व दर्शन ही आत्मदर्शन है । एकत्वदर्शनमूलक आचरण और तद्विशिष्ट सत्यशोध ही सत्य का लाभ है। इस तरह तत्त्वदर्शन के लिए आचरण शून्य किसी स्थिति को गांधी जी स्वीकार नहीं करते। इसलिये उनके मत में आचारधर्म जीवमात्र के लिए आवश्यक है। यह अचार-धर्म आत्मशुद्धि के साथ जगत् का भी नवनिर्माण करता है। प्राचीन योगशास्त्र भी साधन के रूप में यम, नियम आदि का उपदेश करता है किन्तु उन योग मागियों ने समाज सेवा के महत्त्व को नहीं समझा। इसलिए आत्मलाभ के लिए समाज सेवा के प्रति निष्ठा गान्धी जी की अपूर्व देन है।
___गान्धीवाद कर्म, भक्ति और ज्ञान का अपूर्व समन्वय है। इन तीन में से किसी एक की प्रधानता को वे स्वीकार नहीं करते । सभी का सम्पूर्ण उदय उनका तत्त्वज्ञान है, रचनात्मक कार्यक्रम उनका कर्मयोग है तथा नाम स्मरण के द्वारा परमेश्वर की सहायता प्राप्त करते हुए अहिंसा आदि एकादश व्रतों का आचरण भक्तियोग है। गांधीवाद के ये तीन सम्यग्-दर्शन हैं, जिनके द्वारा समष्टि-आत्मा परिशुद्ध होता है। इस निखिल समष्टि का केन्द्र उनके मत में स्वजीवन अर्थात् व्यष्टिजीवन है।
महात्मा गांधी के मत में बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है तथा कर्म का आदि स्रोत वे श्रद्धा को मानते हैं। उनके अनुसार श्रद्धा विशुद्ध ज्ञानमयी है और वह मन को शुद्ध करती हुई हृदय को पुष्ट करती है। हृदय की पुष्टि के द्वारा आत्मवोध होता है। फलतः हृदय में रहनेवाली बुद्धि अपने आप अनायाम परिशुद्ध हो जाती है। इसलिए उनकी दृष्टि में केवल बुद्धिवाद कोरा भ्रम है, क्योंकि वह आत्मशक्ति को अवरुद्ध करता है। इसलिए वे कहते हैं-"जो बुद्धि से परे है, वह श्रद्धा
परिसंवाद-३
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