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महात्मागांधी का प्रयोगदर्शन
४७ का क्षेत्र है जो बुद्धि का विषय है,वह कभी भी श्रद्धा का क्षेत्र नहीं है, इसलिए अन्ध श्रद्धा कभी भी श्रद्धा नहीं है, अन्धत्व बुद्धि का धर्म है' । 'बुद्धि और अन्त:शुद्धि में परस्पर कार्यकारणभाव कतई नहीं है।' श्रद्धा से आत्मज्ञान बढ़ता है, श्रद्धा ही जगत् को धारण करती है" । अतः उत्कट श्रद्धा ही धर्म है।
क्योंकि गांधीवाद में सत्य और अहिंसा ही स्वतःप्रमाण हैं, अतः उनके अनुसार वे ही परम धर्म हैं। सत्य और अहिंसा के अनुकूल वचन ही धर्मशास्त्र है। ईश्वर केवल श्रद्धा द्वारा वेद्य है। जब पापों का नाश किया जाता है, तब पाप समूहों के साथ जो संघर्ष होता है. उस समय ईश्वर का आभास मिलता है। इस संघर्ष के समय अत्याचारी के प्रति क्रोध का लेश भी उत्पन्न न हो, यही सच्ची ईश्वरनिष्ठा है। सत्य, अहिंसा आदि के नियम ही सत्य या ईश्वर का साकार विग्रह है, क्योंकि नियम और नियन्ता में अभेद है। नियम के साथ अभेद स्थापित कर लेना ही 'जप' है।
गान्धीवाद का उपर्युक्त विवेचन केवल दिनिर्देशमात्र है। यहाँ मैंने अधिकतर प्रतिज्ञाएं ही की हैं, इसलिए निबन्ध की पर्याप्त आलोचना अपेक्षित है, जिससे यह धर्म, दर्शन, समाजशास्त्र आदि की दृष्टि से भलीभाँति आलोचित हो जाए।
परिसंवाद-३
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