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महात्मागांधी का प्रयोगदर्शन प्रयोग करने वाले के समक्ष विपक्षियों के हिंसक हथियारों को उत्तरोत्तर कुण्ठित करने लगता है। अहिंसा सर्वप्रथम सजातीय अभय को उत्पन्न करता है और विजातीय क्रोध आदि का शमन करता है। अभय के प्रतिष्ठित हो जाने पर जैसेजैसे अहित की आशंका क्षीण होने लगती है वैसे-वैसे अविरोध का भाव बढ़ने लगता है। विरोधी भावना के नष्ट हो जाने पर अहिंसक रीति से किया जाने वाली संघर्ष शिव और सत्य का निर्माण करने लगता है। हिंसा का आदि, मध्य और अवसान सभी भय में पर्यवसित होते हैं, इसलिए हिंसक प्रतीकार किसी भी पक्ष के भय का नाश नहीं करता। प्रतिघात अपने सजातीय प्रतिघात को उत्पन्न करता हुआ सबसे पहले प्रयोग करने वाले व्यक्ति के भीतर ही भय एवं त्रास आदि से उत्पन्न दैन्य एवं कातरता को पैदा करता है जिसकी वजह से प्रेम, त्याग आदि सद्गुण उत्तरोत्तर क्षीण होगे लगते हैं। इसके विपरीत साधक जब अहिंसा को जीवनविधि के रूप में स्वीकार करता है, तब अकुशलों और पापों से संघर्ष ही उसका जीवन बन जाता है। उसी समय धर्मयुद्ध का वास्तविक स्वरूप प्रकट होता है। जैसे हिंसक प्रतीकार से पूर्व विपक्षी के प्रति क्रोध, घृणा, ईर्ष्या आदि का होना अनिवार्य होता है और हिंसा करने के लिए अस्त्र-शस्त्र आदि का प्रयत्नपूर्वक संग्रह और प्रयोग करना अपेक्षित होता है, ठीक उसी प्रकार अहिंसक प्रतीकार से पूर्व सत्य के प्रति जिज्ञासा, सत्याग्रह, मानवों के प्रति समताभाव एवं भूतदया आदि का होना अपेक्षित होता है। साथ ही सहिष्णुता और मानवमात्र के प्रति प्रेम तथा उनके लिए प्राणोत्सर्ग एवं मृत्यु के आलिंगन की कला का प्रशिक्षण भी आवश्यक होता है।
अहिंसा का प्राचीन प्रयोग प्रतिरोध न करने तक ही सीमित था, इसलिए उसका विकास व्यष्टिजीवन में ही सम्भव हो सका और समाज में आहार आदि तक ही उसका प्रयोग मर्यादित रहा। किन्तु अहिंसा समाज का कल्याण साध सकती है और अन्धे; लंगड़े व्यक्ति तक का वह अमोघ अस्त्र हो सकती है तथा समाज-सेवा के माध्यम से स्वरूपलाभ भी करा सकती है-इस प्रकार की अहिंसा में निहित विश्वविजयिनी शक्ति प्रायः उच्छिन्न हो गयी। महात्मा गांधी की पद्धति अध्यात्म का अपूर्व प्रयोग है, क्योंकि उनकी पद्धति, आर्थिक और भौतिक सहायता की बिना अपेक्षा किए सभी प्राणियों में प्रतिष्ठित सत्य और अहिंसा की शक्तियों को संघटित करते हुए समाजकल्याण विरोधी तत्त्वों को और अपनी बुराइयों को पराभूत करने में समर्थ है।
परिसंवाद-३
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