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भारतीय चिन्तन को परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
सचेत करते थे कि अन्तःकरण के नाम पर स्वार्थ सिद्धि का प्रयत्न अनुचित है। वह कहते थे कि जो व्यक्ति हर बात में अन्तःकरण के प्रश्न को उठाता, वह वास्तव में अन्तःकरण को जानता ही नहीं है। उनका कहना था कि अन्तःकरण से सम्पन्न व्यक्ति विनम्र' होता है, अपनी भूल को स्वीकार करने को सदा तैयार रहता है तथा दूसरों के विचारों पर उचित ध्यान देता है। गांधीजीं चाहते थे कि सभी कार्यकर्ता समझें कि संयमविहीन आन्दोलन निरर्थक ही नहीं विनाशकारी है तथा देश की उत्तेजना के बजाय 'ठोस कार्य' तथा 'आत्म-नियन्त्रण' की स्थिरता तथा लक्ष्य के प्रति दृढ़ता की आवश्यकता है। सार्वजनिक अधिकार सामाजिक उत्तरदायित्व है, सव सार्वजनिक संस्थाएं ट्रस्ट है, जनकल्याण की अभिवृद्धि के लिए सत्प्रयत्न द्वारा ही मनुष्य ऊँचा उठ सकता है और जो व्यक्ति जितना ही ऊँचा है, उतना ही अधिक उसका सामाजिक उत्तरदायित्व है। गांधीजी चाहते थे कि कार्यकर्ता अनुभव करें कि राजनीतिक शक्ति स्वयं लक्ष्य नहीं, बल्कि समाजसेवा का एक साधन है। सब कार्य राज्य तथा राजनीति द्वारा नहीं हो सकते, राजनीति से अलग रह कर भी रचनात्मक कार्यों द्वारा समाज की ठोस सेवा हो सकती है। रचनात्मक कार्य के लिए जनता का स्वैच्छिक सहयोग, विभिन्न संस्थाओं की पारस्परिक सद्भावना तथा सर्वोदय की भावना से अनप्राणित सामाजिक कार्यकर्ताओं की निस्वार्थसेवा आवश्यक है। वही कार्यकर्ता समाज की ठोस सेवा कर सकता तथा रचनात्मक कार्यों में जनता का स्वैच्छिक सहयोग प्राप्त कर सकता है जो स्वयं सदाचारी हो, सामाजिक संयम के नियमों का पालन करता हो, जिसको सत्य, अहिंसा तथा मानव स्वभाव के सद्गुणों पर पूर्ण विश्वास हो और जिसने अपने जीवन को जनजीवन से आत्मसात कर लिया है तथा जो सब धर्मों के प्रति आदर तथा सद्भावना रखता है एवं दलित की सेवा अपना विशेष कर्तव्य समझता है और अपने सब कामों में सत्याग्रह के नियमों का पालन करता है।
सत्याग्रह गांधीजी की सबसे बड़ी देन है। यद्यपि अति प्राचीनकाल से अहिंसात्मक सत्प्रयत्नों द्वारा रचनात्मक कार्य होता रहा है, और समय समय पर कतिपय विशिष्ट व्यक्तियों ने अहिंसात्मक प्रयोगों द्वारा राज्य के अन्याय और अत्याचार का प्रतिरोध किया है, पर सम्भवतः गांधीजी ने ही सबसे पहले सत्याग्रह के रूप में साम्राज्यशाही आधिपत्य और अन्याय के विरुद्ध देशव्यापी अहिंसात्मक जनसंघर्ष
और जनविद्रोह का संचालन किया है। रचना और संघर्ष दोनों ही सत्याग्रह के महत्त्वपूर्ण अंग हैं और समाज के नवनिर्माण के लिए दोनों का समन्वित प्रयोग आवश्यक है । संघर्ष विहीन रचना पुराने सामाजिक ढांचे में कुछ सुधार कर सकती है.
परिसंवाद-३
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