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गांधीचिन्तन की सार्थकता
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पर उसमें आमूल परिवर्तन के लिए तो स्थिर स्वार्थो से संघर्ष की जरूरत पड़ती है। रचनाविहीन संघर्ष नये समाज का निर्माण कैसे कर सकता है, उसके लिए मार्ग भले ही प्रशस्त कर दें। रचना और संघर्ष के समन्वय द्वारा ही अत्याचार और अन्याय का विनाश तथा न्याय पर आश्रित समाज का निर्माण हो सकता है। अहिंसात्मक संघर्ष में अत्याचार और अत्याचारी में भेद किया जाता है। अत्याचार का अत्यधिक विरोध तथा अत्याचारी के प्रति अत्यधिक सद्भावना सत्याग्रह का मूलमन्त्र है। सत्याग्रही अत्याचारी का विनाश नहीं चाहता, बल्कि अपने त्याग और बलिदान द्वारा अत्याचारी का हृदय परिवर्तन करना चाहता है, और उसे अत्याचार की भावना और सुविधा से निर्मुक्त कर उसका नैतिक उद्धार करना चाहता है। सत्याग्रही की दृष्टि में वही संघर्ष सर्वश्रेष्ठ है जो न्याय से प्रेरित सत्य और मानवता से समन्वित, दम्भ और द्वेष से विहीन तथा अहिंसा से संचालित हो तथा रचना और उत्कर्ष ही जिसका लक्ष्य हो। दीनों और पीड़ितों की अभिवृद्धि संघर्ष और रचना दोनों ही परीक्षा है। जिन कार्य के द्वारा किसी विशिष्ट ऊचे वर्ग या समुदाय का लाभ हो, पर दीनों और पीड़ितों के हितों की उपेक्षा हो, उसे गांधीजी के विचार में सही संघर्ष या अच्छा रचनात्मक कार्य नहीं कहा जा सकता। ग्रामीण नवनिर्माण, विभिन्न सम्प्रदायों में सद्भावना की वृद्धि तथा पिछड़े वर्गो का नैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक उत्थान गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम के विशिष्ट लक्षण हैं।
स्वतन्त्रता के बाद जहां कुछ सत्ताधारी राजनीतिज्ञों की धारणा वन गयी है कि स्वराज्य में सत्याग्रह अर्थात् संघर्ष को कोई स्थान नहीं, वहां कुछ राजनीतिज्ञ संघर्ष को ही सत्याग्रह समझते हैं। कतिपय रचनात्मक कार्यकर्ता के विचार में रचना ही सत्याग्रह का काम है। पर यह सब धारणाएं अपूर्ण हैं। यदि प्रहलाद अपने पिता के असत्य के विरुद्ध सत्याग्रह कर सकता है, तो फिर एक स्वतन्त्र नागरिक अपनी सरकार के अन्याय के विरुद्ध सत्याग्रह क्यों नहीं कर सकता ? लोकतन्त्र में भी संघर्ष होते ही रहते हैं। भारत में तो इस समय संघर्ष की भरमार है। अहिंसात्मक संघर्ष का मार्ग अवरुद्ध करके संघर्ष का अन्त नहीं होता। बल्कि हिंसात्मक संघर्ष के लिए रास्ता साफ हो जाता है। इसलिए अहिंसात्मक संघर्ष को बन्द करके समाज में शान्ति प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। जरूरत इस बात की है कि जनता को समझाया जाय कि हिंसा के वातावरण में लोकतान्त्रिक भावना और लोकतान्त्रिक व्यवस्था का पनपना सम्भव नहीं है, रचनात्मक उपायों द्वारा आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को पूर्ति सर्वोत्तम है, दूसरे शान्तिमय लोकतान्त्रिक उपायों से दूषित परिस्थिति का परिशोध
परिसंवाद-३
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