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गांधीदर्शन प्रो. राजाराम शास्त्री
गांधीजी का दर्शन उनके साध्य-साधन सिद्धान्त में निहित है। यह सिद्धान्त उनकी राजनीतिक पद्धति में ही नहीं, उनके आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और वैयक्तिक सभी विचारों में अनुस्यूत है और इसी के कारण उनके सभी विचारों में एक व्यापकता और सार्वभौमता दिखाई देती है। दर्शन प्रकृत्या सार्वभौम होता है, इसलिये गांधीजी के विचारों का वही अंश उनका दर्शन माना जायेगा जिसका प्रयोग सार्वभौम हो, और जो विशिष्ट परिस्थितियों से सीमित न होकर, न केवल मानव जीवन के सभी अंगों में प्रत्युत प्राकृतिक नियमों में भी प्रयुक्त हो सके।
साधन, साध्य की सिद्धि के लिये होता है। किन्तु सर्वज्ञ न होने के कारण कोई मनुष्य किसी साधन से जिस साध्य की सिद्धि की कल्पना करता है, वह सदा सिद्ध हो ही जाय, ऐसा नहीं होता । असफलता की स्थिति में साधक को यह विचार करना होता है कि उसके साधन में क्या कमी रह गयी. जिससे वह अपने साध्य को सिद्ध न कर सका। फल के रूप का विश्लेषण करके यह देखा जा सकता है कि साधन में कौन सी कमी रह गयी थी। इस प्रकार किसी साधन से प्राप्त होने वाले कल्पित साध्य के स्थान पर जो वास्तविक फल प्राप्त हुआ. वह फल कल्पित साध्य की तुलना में अंशतः या पूर्णतः कितना भिन्न है। इसको देखते हुये मनुष्य अपने साधनों का संशोधन करता है । और फिर उनका प्रयोग करके देखता है, जब तक कि उससे अपना वांछित फल न प्राप्त हो जाय । इस प्रकार कर्म करते हुए प्राप्त फलों या साध्यों के अनुभव से साधनों का परिष्कार होता है, और साध्यों के अनुभव प्रत्यावर्तित होकर नये साधनों या संशोधित साधनों को उद्भूत करता है । साधन और साध्य के बीच अनुभव का यह आदान-प्रदान बराबर चलता रहता है । इस दृष्टि से केवल इतना कहना सही नहीं है कि शुद्ध साधन से ही शुद्ध फलों की प्राप्ति हो सकती है अथवा सही साधन से ही वांछित फलों की प्राप्ति हो सकती है। साथ साथ यह भी कहना आवश्यक होगा कि किसी भी कार्य से वस्तुतः जो फल प्राप्त होते हैं उन्हीं का
परिसंबाद-३
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