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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
वह साधन है और यदि दूसरा या उससे अच्छा फल चाहिए तो फिर दूसरे अच्छे साधनों का प्रयोग करना होगा। इस तरह साध्य भी साधन' के स्वरूप को निर्धारित करता है न केवल यह कि साधन ही साध्य के स्वरूप को निर्दिष्ट करता है प्रत्युत दोनों परस्परापेक्षी हैं। ऐसी स्थिति में जब गाँधी जी ने यह कहा कि यदि हिंसामय साधनों का प्रयोग किया जायेगा तो अहिंसात्मक समाज नहीं प्राप्त हो सकता, पर यह कोई इलहायी बात नहीं थी, अपनी प्रतिभा से उन्होंने इतिहास की गति से ही यह निर्णय निकाला था। क्योंकि इतिहास में जितने युद्ध हुए वे स्थाई शान्ति की स्थापना नहीं कर सके । उनकी हिंसात्मक प्रतिक्रिया देर या सबेर अवश्य हुई। इसलिए ऐतिहासिक अनुभव के इसी सारांश से गांधीजी ने यह नतीजा निकाला कि कोई भी युद्ध या महायुद्ध अन्तिम युद्ध नहीं हो सकता, और न उससे स्थायी शान्ति की स्थापना हो सकती है। यदि शान्ति स्थापित करनी है तो शान्तिमय अर्थात् अहिंसात्मक साधनों से ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करना होगा।
सैनिक आक्रमक अथवा अन्यायमूलक व्यवस्था के निराकरण के लिए संघर्ष तो करना ही होगा, लेकिन वह संघर्ष अहिंसात्मक रूप में कल्पित किया जाय तभी वांछितफल प्राप्त हो सकता है। जो बात युद्धों के लिए सही है वही बात अत्याचारी अथवा शोषक व्यवस्था के लिए भी सही होनी चाहिए। यदि अपने विरोधी में द्वेष की प्रतिक्रिया उत्पन्न किये विना न्याय प्राप्त किया जा सके, तभी वह न्याय' स्थायी होगा। इसी निष्कर्ष के अधीन गांधीजी ने असहयोग, सत्याग्रह, प्रतिरोध, आदि ऐसे साधनों का आविष्कार किया जिनसे भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। और जिनका प्रयोग विश्व में सभी अत्याचार पीड़ित लोग कर रहे हैं। स्वातन्त्र्य आन्दोलन के प्रसंग में देश की कुछ आर्थिक व्यवस्थाओं के परिवर्तन की भो कल्पना की गयी, जिससे सामान्य जनता का सहयोग भी प्राप्त हुआ। और स्वतन्त्रता प्राप्त होने के बाद जमीन्दारी उन्मूलन, राज्यों का विलयन, आदि आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तन प्रायः विना हिंसा के सम्पन्न किये गये। और सामाजिक ढाचे में यद्यपि अभी तक कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है किन्तु उस परिवर्तन की बुनियाद पड़ चुकी है।
ऐसा तो नहीं प्रतीत होता कि कोई भी साधन यदि मनुष्य प्रयुक्त करता है तो वह साध्य की ओर विलकुल ही अग्रसर नहीं होता, क्योंकि जो भी साधन मनुष्य किसी कार्य के लिए चुनता है तो उसके पीछे कुछ न कुछ संचित अनुभव अवश्य रहता है। प्रायः यही देखा जाता है कि साधनों की अपूर्णता के कारण साध्य भी पूरे नहीं होते, एक सीमित रूप में ही प्राप्त होते हैं। इस दृष्टि से यह कहना चाहिए कि
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