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मौलिक दर्शन की सम्भाव्य दिशाएं
डॉ. हर्षनारायण सम्प्रति भारत में मौलिक दर्शन के नाम पर कुछ नहीं हो रहा है। यह एक दुःखद ही नहीं शर्मनाक सत्य है। हम या तो परम्परा-प्राप्त दर्शन-सूत्रों की रट लगाते रहते हैं अथवा पश्चिमी और उसमें भी केवल समसामयिक वस्तुतः ह्रासशील दार्शनिक प्रवृत्तियों का अनुवदन मात्र करते हुए अपने को धन्य समझते हैं।
एक दृष्टि से दर्शनों के दो भेद किये जा सकते हैं-अनुभवाभिधायीदर्शन और अनुभवापलापी दर्शन । अनुभवाभिधायी दर्शन अनुभव को स्वीकार करते हुए उसके व्याख्यान का प्रयत्न करता है, जब कि अनुभवापलायी दर्शन अनुभव का प्रत्याख्यान करना चाहता है। अनुभवापलापी दर्शनों में माध्यमिक और उसके बाद शाङ्कर अद्वैत प्रमुख हैं। माध्यमिक की घोषणा है--
अनुभव एष मृषा, अनुभवत्वात, 'तैमिरिकद्विचन्द्राद्यनुभववत् ।'
माण्डक्यकारिका-भाष्य में अनुभव अथवा दृश्य का अपलाप पञ्चावयवानुमानपद्धति से इस प्रकार किया गया है
जानदृश्यानां भावानां वैतथ्यमिति प्रतिज्ञा। 'दश्यत्वादिति हेतुः। स्वप्नदृष्टभाववदिति दृष्टान्तः ।
'यथा तत्र स्वप्ने दुश्यानां भावानां वैतथ्यं तथा जागरितेऽपि दृष्टत्वमविशिष्टमिति हेतूपनयः।
'तस्माज्जागरितेऽपि वैतथ्यं स्मृतमिति निगमनम् ।' १. मध्यमक-वृत्ति १.३, पृ. २० २. माण्ड्क्य कारिका-भाष्य २.४. पृ. ८६
परिसंवाद-३
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