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दर्शन-दिग्दर्शन
२८७ अत्यन्त पुरुषार्थ क्या है और वह कैसे प्राप्त होता है ? इसे सांख्यसूत्र के प्रथम सूत्र में कहा गया है-'अथ त्रिविधदुखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः' । वैशेषिक दर्शन में तत्त्व क्या है, इसका ज्ञान कैसे हो, आदि से तत्त्वचिन्तन का आरम्भ किया गया है। अन्त में उसके अत्यन्त पुरुषार्थ रूप का तत्त्वज्ञान रूप से सम्बन्ध दिखलाया गया है। ब्रह्मसूत्र में ब्रह्म क्या है, इसकी खोज से आरम्भ किया गया है। अन्त में ब्रह्म-ज्ञान या ब्रह्म-अनुभूति फल अर्थात् प्रयोजन से परमानन्द की प्राप्ति रूप अत्यन्त पुरुषार्थ का निरूपण किया गया। किसी काल तथा किसी देश में तत्त्वज्ञान तथा अत्यन्त पुरुषार्थ को एक दूसरे से पृथक नहीं किया गया है। भारतीय दर्शन इस कारण, दर्शन शब्द से यदि पुकारे जायँ तो समीचीन ही है। क्योंकि उसका विषय है वास्तविकता का अन्वेषण तथा अत्यन्त पुरुषार्थ की प्राप्ति ।
वास्तविकता शब्द का जिस किसी अन्तिमतत्त्व, स्थिति, परिवर्तन, विज्ञान, अभाव और शून्यता आदि के विविध प्रत्ययों के अर्थ में प्रयोग करते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि मानव में एक जिज्ञासा की प्रबल शक्ति रहती है, जो बाध्य करती है कि मनुष्य निरन्तर सत्य की खोज करता रहे। यह खोज स्वयं एक आनन्द रूपात्मक है।
प्रस्तुतकर्ता श्रीराधेश्यामधर द्विवेदी
परिसंवाद-३
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