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सत्य और अहिंसा की अवधारणा : गांधी की सामाजिक-नैतिक दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में
श्री रमेशचन्द्र तिवारी
गांधी विचारों के अध्येता जानते हैं कि सत्य और अहिंसा की अवधारणाओं पर उनकी अटूट निष्ठा थी। उनके लिए यह दोनों अवधारणायें केवल बौद्धिक महत्त्व नहीं रखती थी, बल्कि वह मानते थे कि सच्चा मानव अस्तित्व और एक सही समाज व्यवस्था केवल सत्य और अहिंसा पर ही आधृत हो सकती है । अतः गांधी की दृष्टि में सत्य और अहिंसा मनष्य के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के सर्वोच्च दिशा निर्देशक हैं, उनके ऊपर कोई नहीं है। यदि उनकी दृष्टि में सत्य
और अहिंसा का इतना गहरा महत्त्व है तो गांधी के विचारों को समझने के लिए सबसे अधिक आवश्यक है कि उनकी इन दोनों अवधारणों के अर्थों, निहितार्थों और
और उनकी अर्तसम्बद्धता को समझा जाय । प्रस्तुत निबन्ध में उक्त दो अवधारणाओं को गांधी की समग्र सामाजिक-नैतिक दृष्टि के संदर्भ में देखने का प्रयास किया गया। निबंध के प्रथम खण्ड में उनकी दृष्टि में निहित प्रधान विशेषताओं
की चर्चा की गयी है तथा द्वितीय एवं तृतीय खण्डों में क्रमः सत्य और अहिंसा की :- अवधारणाओं की व्याख्या की गयी है।
गांधी जी किसी दर्शन प्रणाली के प्रवर्तक नहीं थे। किन्तु उनकी चिन्तन प्रक्रिया के पीछे कुछ दानिक मान्यतायें अवश्य छीपी थी। इन मान्यताओं के तीन प्रधान स्रोत थे। पहला स्रोत था प्राचीन भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक विरासत; दूसरा स्रोत था पश्चिम की उदार मानवतावादी परम्परा और तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत था उनका अपना वैयक्तिक अनुभव । उनकी दार्शनिक मान्यताओं की पृष्ठभूमि के रूप में इन तीनों स्रोतों को पहचाना जा सकता है। यद्यपि गांधीजी का उद्देश्य किसी दर्शन का निर्माण करना नहीं था किन्तु उन्होंने मानवीय मूल्यों के
'परिसंवाद-३
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