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सत्य और अहिंसा की अवधारणा : ... ....
निर्धारण के लिए एक सुसम्बद्ध अवधारणात्मक ढाँचे का सर्जन अवश्य किया। उन्हें मूल्यों और अवधारणाओं की ऐसी संरचना की तलाश थी जो मानव जीवन को आलोकित करें और जो केवल वैचारिक स्तर पर कायम न रह कर दैनन्दिन जीवन में और मानव व्यवहार में प्रतिष्ठित हो सके।
___ मूल्यों और आदर्शों की अवधारणाओं की जो संरचना गांधीजी ने निर्मित की उसकी दर्शनशास्त्र के लोगों द्वारा उसी प्रकार व्याख्या करना सम्भव है जिस प्रकार वे किसी बड़े चिन्तक की दार्शनिक अवधारणाओं की व्याख्या करते हैं। दार्शनिक दृष्टि से व्याख्या करने पर गांधी के विचारों के बारे में यह विशेषता देखने में आती है कि उनके चिन्तन में सत्तामीमांसा, ज्ञानमीमांसा और विचार पद्धति तीनों ही असाधारण रूप से एकीकृत हैं। उनके इस एकीकृत चिन्तन का ही यह परिणाम था कि उनकी अवधारणायें केवल वैचारिक स्तर पर तर्कसंगत निर्मितियाँ मात्र नहीं थी। उनकी अवधारणाओं की यह विशेषता थी कि वे सामाजिक मूल्यों की शक्ल भी ग्रहण कर लेती थी। उनकी विचार प्रक्रिया अवधारणाओं को मूल्यों में रूपान्तरित कर देती थी। गांधीजी कभी इस बहस में न पड़े कि चित्ततत्त्व प्रधान है या पदार्थतत्त्व। उन्होंने जीवन और उसके अनुभवों को आधार बनाया। इसीलिए उनके लिए दार्शनिक अवधारणाये प्रधान नहीं थी वह मनुष्य का पथ निर्देश करने वाले मूल्यों और आदर्शों को प्रधानता देते थे। अतः सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, स्वदेशी तथा स्वराज्य जैसी उनकी सभी अवधारणाओं का अन्तिम महत्त्व इसी में निहित है कि वे व्यक्ति और समाज दोनों के मूल्यों को आधार प्रदान करते हैं। आधारभूत मूल्यों के माध्यम से वह एक सम्यक् मानव समाज को विकसित होता देखना चाहते थे। उनकी दृष्टि में एक सम्यक् मानव समाज को आधारभूत मूल्यों की भित्ति पर ही स्थापित किया जा सकता है।
गांधीजी की दृष्टि में मानव समाज को उसके विभिन्न अंगों की अन्योन्याश्रयता पर आधारित एक समग्रता के रूप में देखा जाना चाहिए। वे समाज के विभिन्न अंगों को विखण्डित और एकांतिक दृष्टि से नहीं देखते थे। उनके लिये धर्म, राजनीति, अर्थव्यवस्था, परिवारव्यवस्था, संस्तरणात्मक-व्यवस्था आदि एक दूसरे से अलग नहीं थे, बल्कि एक ही सूत्र से बँधे हुए थे, अन्योन्याश्रित थे। अत: उनकी सम्यक् मानव समाज की कल्पना के पीछे एक विचार सूत्र काम करता है और वह जीवन को बुनियादी मूल्यों पर प्रतिष्ठित करना है।
मूल्यों और आदर्शों को केन्द्र में रखकर व्यक्ति और समूह के जीवन को संगठित तथा विकसित करने पर असाधारण बल देने के कारण गांधी
परिसंवाद-३
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