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________________ (xi) संगोष्ठी का द्वितीय सत्र प्रकृत जैनशास्त्र : भाषा और साहित्य पर आयोजित था, जिसकी अध्यक्षता पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान, वाराणसी के निदेशक एवं प्रख्यात जैनविद्वान् प्रो. सागरमल जैन ने की। प्रो. जैन ने अपने शोधपत्रों में वरांगचरित एवं उसके कर्त्ता जटासिंहनन्दी को यापनीय परम्परा को सिद्ध किया । डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव ने अपने शोधपत्र में वसुदेवहिण्डी की खण्ड-कथाओं की प्रकृतिगत भेदों का विशद विवेचन प्रस्तुत करते हुए उनमें निहित कथाकार के विशिष्ट अभिप्रायों को लक्षित किया। डॉ. सुरेन्द्रनाथ दीक्षित ने भगवान् महावीर एवं बुद्ध के जीवन एवं चिन्तन- दृष्टि के साम्य एवं वैषम्यमूलक बिन्दुओं पर प्रकाश-निक्षेप किया। डॉ. गदाधर सिंह ने प्रकृत- अपभ्रंश में निहित छन्द- सम्बन्धी तत्त्वों को भारतीय संस्कृति एवं साहित्य की अमूल्य निधि बताया। श्री अनिल कुमार शर्मा ने अपने शोधपत्र में आध्यात्मिक रूपकों के निर्माण-क्षेत्र में हिन्दी के जैन रचनाकारों का अप्रतिम योगदान का मूल्यांकन किया । संगोष्ठी के तृतीय एवं अंतिम सत्र का विषय जैनधर्म और दर्शन था, जिसकी अध्यक्षता जैन विश्वभारती, लाडनूं के निदेशक एवं बौद्ध एवं जैनदर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् डॉ. नथमल टाटिया ने की। डॉ. टाटिया ने अपने शोध निबन्ध में पालि सक्काय एवं प्राकृत अत्थिकाय के व्युत्पत्तिकारक सादृश्य को समाहित करते हुए उनके तात्त्विक भेद का विचार किया। डॉ. रामजी सिंह ने जैनदर्शन का वैशिष्ट्य अनेकान्तवाद के तर्कबद्ध विकास को माना । प्रो. सागरमल जैन ने जैनदर्शन के गुणस्थान जैसे सुव्यवस्थित अवधारणा को ४-५ वीं शती में उद्भूत सिद्ध किया । डॉ. योगेन्द्र प्रसाद सिंह के निबन्ध में भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में जैनदर्शन के विशिष्ट योगदान की शास्त्रीय विवेचना सुलभ हुई है। डॉ. अवधेश्वर अरुण ने जैनदर्शन . को आत्मविजय के दर्शन के रूप में निरूपित किया। डॉ. अजित शुकदेव शर्मा ने जैन आचार को जैनदर्शन एवं धर्म की पूर्व मान्यताओं पर आधारित सिद्ध किया। डॉ. प्रेमसुमन जैन ने हिन्दू एवं जैन धर्मों में परमतत्त्व की अवधारणा एवं उसकी प्राप्ति-विषयक विचारों की निकटता का संकेत किया । डॉ. युगल किशोर मिश्र ने 'उत्तराध्ययनसूत्र' में प्रतिपादित संन्यास धर्म की विवेचना प्रस्तुक की। डॉ. अवधेश उपाध्याय ने वर्धमान महावीर द्वारा प्रतिपादित पंचसूत्री आचार-संहिता तथा बृहदारण्यक के तीन सूत्री 'द' का रोचक विश्लेषण कर उनका मानवमात्र के लिए कल्याणकारी सूत्र के रूप में मूल्यांकन किया। डॉ. शैलेन्द्र कुमार राय ने जैनदर्शन के आत्मतत्त्व का विवेचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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