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________________ ८६ कह कर जिस का परिचय दिया है और महाकवि कालिदास ने विक्रमोर्वशीय में अपभ्रंश के दोहों में भाषा का जो निदर्शन प्रस्तुत किया है, उससे अपभ्रंश का एक यथार्थ रूप हमारे सामने आता है । आ० नमिसाधु ने स्पष्ट रूप से आभीरी या अपभ्रंश भाषा के लक्षण मागधी में कहे हैं जो एक रूढ़ि मात्र थी। उन्होंने प्राकृत की प्रधानता होने के कारण अपभ्रंश को भी उसके अन्तर्गत गिनाते हुए अपभ्रंश के तीन मुख्य भेदों का निर्देश किया है-उपनागर, आभीर और ग्राम्य । संस्कृत काव्यशास्त्रियों के विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रंश जनसामान्य की और एक ग्राम्य गंवारू भाषा थी । राजा भोज के युग में १०२२-६३ ई० प्राकृत की भांति अपभ्रंश का भी अच्छा प्रचार था । कहा जाता है कि स्वयं राजा भोज संस्कृत, प्राकृत और अभ्रंपश के अच्छे जानकार थे तथा तीनों भाषाओं में रचना करते थे । काव्य में भी तीनों भाषाओं का इस युग में सामान रूप से महत्व था । गुजरात में अपभ्रंश का विशेष प्रचार था। वहां के लोग केवल अपभ्रंश से ही सन्तोष का अनुभव करते थे । यही नहीं, लाट देश के वासी संस्कृत से द्वेष रखते थे और प्राकृत को रुचिपूर्वक सुनते थे। गौडदेशीय लोगों को भी प्राकृत अच्छी लगती थी । शालिवाहन राजा के काल में प्राकृत का विशेष अभ्युदय हुआ । प्राकृत से भरित होने के कारण अपभ्रंश की रचना भी अत्यन्त भव्य और सरस है । इसे मगध और मथुरा के लोग बोलते थे, जो कविजनों को भी इष्ट थी' । राजशेखर ने काव्य की मुख्य चार भाषाओं का निर्देश किया है। उसके अनुसार संस्कृत सुनने में दिव्य प्राकृत स्वभाव से मधुर, अपभ्रंश सुभव्य और भूतभाषा सरस है । काव्यमीमांसा के विवरण से पता लगता है कि अपभ्रंश का प्रचलन मारवाड़ में ही नहीं, सम्पूर्ण प्राचीन राजस्थान, पश्चिमो पंजाब, गुजरात तथा मालवा में भी था । मुख्य रूप से डा० तगारे ने अपभ्रंश के पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी तीन भेद माने हैं । अपभ्रंश का लिखित साहित्य अभी तक उत्तर भारत को छोड़कर दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तीनों भागों से प्राप्त हो चुका है । वाल्टर शुबिंग ने आचार्य कुन्दकुन्द के अष्टपा. हुड पर अपभ्रंश का प्रभाव लक्षित किया है । इसी प्रकार शैवागम साहित्य में प्राकृत तथा अपभ्रंश की प्रधानता है । अभी इस पर शोध-कार्य नहीं हुआ । किन्तु इस और विशेष रूप से लक्ष्य देना आवश्यक प्रतीत होता है । बास्तव में प्राकृत और अपभ्रंश ही इस देश की ऐसी भाषाएं हैं जो सहस्रों वर्षों से प्रवर्तित भाषाओं के इतिहास में विशेषतः आर्यभाषाओं की श्रृंखला के समान हैं । इनके बिना इस देश का भाषाविषयक इतिहास सदा अपूर्ण रहेगा। वाकरनागल ने बहुत पहले ही यह तथ्य हमारे सामने रखा था कि वैदिक युग में भी बोलियां थीं, इसका प्रमाण अपभ्रंश में मिलता है । सच बात यह है कि द्वितीय प्राकृत में व्याकरण सम्बन्धी अनेक ऐसे रूप मिलते हैं, जिनकी व्याख्या पाणिनीय संस्कृत द्वारा नहीं की जा सकती । इनमें से एक अपादान अथवा सप्तमी की विभक्ति 'हि' है जो पालि तथा प्राचीन 'सस्कृत' 'धि' से उद्भूत हुई है, साहित्यिक संस्कृत से नहीं । 'धि' का ही रूप प्रत्यय रूप से ग्रोक में 'थि' मिलता है । वैदिक युग में भी इस प्रत्यय का प्रयोग मिलता १. महाराजा भोज : सरस्वतीकण्ठाभरण, २,१३-१६ २. डा० जी० वी० तगारे : हिस्टारिकल ग्रामर आव अपभ्रंश, १९४८, पृ० १५-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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