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________________ प्राचीन मध्य कालीन भारतीय भाषा के कुरूपों के लिए किया है, जो उस समय की संस्कृत में सामान्य थे, पर उन की दृष्टि में असाधु हैं' । लगता है कि वैयाकरणों ने शब्द-रचना की दृष्टि से ही किसी शब्द को असाधु माना होगा, क्योंकि अर्थ की ष्टष्टि से असाधुता का प्रश्न हो नहीं उठ सकता । “गो' के लिए गावी या गोणा शब्द अपभ्रंश में प्रचलित है तो इस से वैयाकरण को क्या कठिनाई है ? केवल यही कि वह संस्कृत इस शब्द को नहीं अपना सकता है, क्योंकि संस्कृत व्याकरण की रूप पद्धति के अनुसार वह निष्पन्न नहीं होता । अत एव शब्द रचना संस्कृत से भिन्न होने के कारण जो शब्द असाधु या भ्रष्ट है उन से भरित भाषा अपनश है। अपभ्रश नव्य भारतीय आर्यभाषाओं की वह अवस्था है जो मध्यकालीन तथा आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच एक सेतु के समान है । यह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की वह पूर्वरूप है, जिससे सभी नव्य भारतीय आर्यभाषाओं का निकास एवं उन्मेष हुआ । वास्तव में शब्द की प्रकृति ही अपभ्रंश है। आज "संस्कृत' शब्द का उच्चारण ही ठीक नहीं हो सकता और फिर “संस्कुरुत उच्चारण ठीक है या संमकिरत" इसका निर्णय कैसे किया जा सकता हैं ? कबीरदास तो स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - कबिरा संसकिरत कूपजल, भाखा बहता नीर ।' भर्तृहरि ने परम्परा से आगत तथा प्रसिद्ध एवं रूढ़ स्वतन्त्र अपभ्रंश भाषा का उल्लेख किया है । केवल शब्दों की और संकेत होने से यह नहीं समझना चाहिए कि उनका लक्ष्य कुछ शब्दों को ओर ही है, वरन् ऐसे शब्द-रूपों तथा वाक्यों से भरित भाषा की और भी है । शास्त्र में तो संस्कृत से भिन्न सभी (प्राकृत भा) भाषाएं अपभ्रंश कही जाती रही हैं । इस का मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि इन अपभ्रंश बोलियों में प्रयुक्त देशी शब्द प्रामाणिकता की कोटि में नहीं आ सके । प्राकृतों की भांति अपभ्रंश भी मख्य रूप से उत्तरी-पश्चमी बोली से निकली, इसलिए वह किसी प्रदेश की प्रतिनिधि भाषा नहीं थी वरन भाषागत अवस्था विशेष का प्रतिनिधित्व आवश्य करता है। अपभ्रंश छठी शताब्दी के लगभग साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी, तभी तो छठी शताब्दी के प्रसिद्ध काव्यशास्त्री भामह संस्कृत, प्राकृत की भांति अपभ्रंश का भी काव्याभाषा के रूप में उल्लेख करते हैं । यद्यपि अपभ्रंश का बोली के रूप में ई० पू० लगभग तीसरी शताब्दी में उल्लेख मिलता है। भरत मुनि ने उकारबहुला के रूप में जिस बोली का उल्लेख किया है और संस्कृत-साहित्य के समालोचकों-दण्डी, नमिसाधु, लक्ष्मीधर, आदि ने आभीरादिगिरः १-ज्यूल्स ब्लाख : इण्डो आर्यन, अनु. अल्फ्रेड मास्टर, पेरिस, १९६५, पृ. २१ Apabhram'sa-Its Original sense is something aberrant. Patanjali applies it to certain forms of old Middle Indian, in common use in the Sanskrit of this time, but from his point of view, incorrect." (pp. 21) २. नाप्रकृतिरपभ्रंश: स्वतन्त्रः कश्चिद् विद्यते । सर्वस्यैव हि साधुरेवापभ्रंशस्य प्रकृतिः । प्रसिद्धेस्तु रूढितामापद्यमानाः स्वातन्त्र्यमेव केचिदपभ्रंशा लभन्ते । तत्र गौरिति प्रयोक्तव्ये अशक्त्या प्रामादादिभिर्वा गाव्यादयस्तत्प्रकृतयोऽपभ्रंशाःप्रयुज्यन्ते ।-वाक्यपदीय, १, १४८, वार्तिक ३. शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ।-काव्यलक्षण (दण्डी, १, ३६) । ४. संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा ।-काव्यालंकार, १,१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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