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________________ ८७ है । किन्तु जिस परिनिष्ठित बोली से संस्कृत प्रादुर्भूत हुई है, उसमें इसका अभाव है ' (देखो प्रो० वाकरनागल : आल्टिण्डीशे ग्रामेटिक, पृ० २० ) स्पष्ट अपभ्रंश की ध्वनि प्रक्रिया प्राकृत को वर्णानुपूर्वी से भिन्न नहीं है और न अलग कोई प्रतीकात्मक पद्धति ही इस में पाई जाती है। आ० भरत मुनि तथा प्राकृत के वैयाकरणों के अनुसार संस्कृत से प्राकृत की वर्णमाला कुछ भिन्न है । बोलियों में सरलीकरण की प्रवृत्ति वैदिक युग से ही बराबर बनी रही है । अपभ्रंश में ह्रस्व ए और ओ का प्रयोग उसके बोली रूप को द्योतित करता है । संस्कृत में ए, ओ सन्ध्यक्षर हैं किन्तु अपभ्रंश में उनकी स्थिति भिन्न है । बोलियों में इनका प्रयोग स्वतन्त्र स्वर के रूप में होता रहा है । जब बोलियों का बराबर प्रभाव साहित्यिक संस्कृत पर पड़ रहा था तब उन में भी सन्धि की प्रवृत्ति मन्थर पड़ गयी थी । ऋक्संहिता में पादान्त और पादादि को सन्धि में भी यह वृत्ति रूप से लक्षित होती है कि इन दशाओं में मूल पाठ में सन्धि होती ही नहीं थी और पादान्त तथा पादादि में सन्धि का होना व्याकरण की दृष्टि से उचित नहीं है । डा० अल्सडोर्फ का कथन बिलकुल ठीक है कि अपभ्रंश की प्रवृत्ति अन्त्य स्वरों के ह्रस्वीकरण की ओर है । इससे अपभ्रंश की सरलीकरण की सामान्य प्रवृत्ति का ही संकेत मिलता है । ईसाकी प्रथम सहस्राब्दी के मध्य में आरम्भ हुई अपभ्रंश भाषा- परम्परा तुर्की ईरानी विजय के समय भी बराबर चल रही थी । कालिदास के विक्रमोर्वशीय में अपभ्रंश के कुछ दोहे मिलते हैं । यदि ये प्रक्षिप्त हों, अथवा आद्य द्वितीय प्राकृत की कालिदास-कालीन ४०० ई० अपभ्रंश के परिवर्तित रूप हों, तो साहित्यिक अपभ्रंश साहित्य का श्रीगणेश उक्त तिथि के आसपास गिना जा सकता हैं । अपभ्रंश की कुछ विशेषताएं, उदा० हो जाना, इसके भी पहले ईसा की तृतीय शताब्दी में ही पश्चिमोत्तरो प्राकृत में दृष्टिगोचर होती हैं । इस प्रकार अपभ्रंश प्राकृत की मूल परम्परा की मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की वह अवस्था है, जो नव्य भारतीय आर्यभाषाओं की पुरोगामिनी है और आधुनिक आर्य बोलियों की सामान्य पूर्वरूप है । अन्तिम ओ का क्षयित होकर उ 3 अपने व्यापक अर्थ में अपभ्रंश भी रूप में साधु भाषा से विपथगामी है । सामान्य नाम है । वस्तुतः यह मध्यकालीन उस जनभाषा के लिये प्रयुक्त नाम है जो लगभग छठी शताब्दी से पन्द्रहवीं तक प्राकृतों की अन्तिम अवस्था में साहित्यिक भाषा के रूप में प्रयुक्त होती थी और जो हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, सिन्धी, पंजाबी और बंगला आदि की मूल रही है । १. सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन : भारत का भाषा - सर्वेक्षण, खण्ड १, भा० १, अनु० डा० उदयनारायण तिवारी, १९५९, पृ०२३२ २ - कृष्ण घोष: प्राकृतिक सन्धि इन द ऋक्संहिता, इण्डियन लिंग्विस्टिक्स, जिल्द ९, भा०१. ३ - डा० सुनोतिकुमार चटर्जी : भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, द्वि०सं०, १९५७, पृ०११७ - पिशेल : कम्पेरेटिव ग्रैमर आव द प्राकृत लैंग्वेज, अनु० सुभद्र -झा, द्वि०सं०, १९६५, पृ०३१ ४-आर० किसी भी उस भाषा की धोतक है जो किसी परिणामतः यह सभी भारतीय लोकचोलियों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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