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________________ ८२ और चारायणीय शिक्षा में कहा गया है कि अभिनिधान में एक स्पर्श दूसरे स्पर्श रूप परिणत हो जाता है । भाषा के वास्तविक उच्चारण में ऐसा प्रायः देखा जाता है। भाषा विज्ञान में इसे समीकरण कहा जाता है । 'सप्त' का 'सत्त' और 'तप्त' का 'तत्त' इसी प्रकार के उदाहरण हैं । अभिनिधान अपूर्ण उच्चारण की स्थिति में घटित होता है। इसी प्रकार वैदिक भाषा में पाई जाने वाली स्वरभक्ति प्राकृत की बोलियों में एक सामान्य प्रवृत्ति रही है । प्राकृत में प्रथम पुरुष सर्वनाम के लिए 'से' निपात का प्रयोग पाया जाता है, जो अवेस्ता 'हे, शे' तथा प्राचीन फारसी 'शझ्यू' से मिलता है और जो संस्कृत में उपलब्ध नहीं होता । वैदिक भाषा में अनेक शब्द प्राकृत के मिलते हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: ___ जुण्ण (सं. जुर्ण, जीर्ण), तूह-तट, घाट(सं. तूर्थ, तीर्थ, अप. तूह, जि. च. १, १०, म. पु. १७. १२. ८), सिढिल-ढीला (सं. शिथिर, शिथिल, अप. सिढिल, म. क. ५. २३. ८), णिड्ड (सं. नीड). कट्ट (सं. कृत्),-विकट्ट (सं. विकृत्), गल्ल (सं. गण्ड), दाढा (दंष्ट्रा) और उच्छेक (सं. उत्सेक) आदि । द्वितीय अवस्था विकास की दूसरी अवस्था में प्रथम ईस्वी के लगभग के पंजाब से खोतान में ले जाये गये धर्मपद के अंश तथा मध्य एशिया के खरोष्ट्री लिपि में लिखे हुए अभिलेख एवं उत्तर-पश्चिम भारत के खरोष्ट्रो अभिलेख अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । मध्यभारतीय आर्यबोली में अभिलिखित ये अभिलेख मध्य एशिया के निय स्थान से प्राप्त हुए हैं इसलिये ये निय प्राकृत के नाम से जाने जाते हैं । ये शान-शान राज्य की राजदरबारी भाषा में लिखे हुए हैं । इन की भाषा मूलतः उत्तरी-पश्चिमी है । इनका समय ईसा की लगभग तोसरी शताब्दी कहा जाता है । इनके अतिरिक्त अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत भी इसी युग की देन है । अश्वघोष की प्राकृत बोलचाल के अधिक निकट है । भरतमुनि ने नाट्य में वर्णित विभिन्न पात्रों की बोली को भाषा कहा है; न कि प्राकृत । वस्तुत: अश्वघोष की भाषा, भास के नाटकों के कुछ प्राकृत अंश तथा भरतमुनि की नाट्यगीतियां संस्कृत के शास्त्रीय (classical) नाटकों से पूर्व की है । लोकनाट्य पहले आमतौर से प्राकृत में लिखे जाते थे । संस्कृत में लिखे गये नाटकों में भी पचास प्रतिशत के लगभग प्राकृत का समावेश है। इन में भी अभिनय केवल आम जनता की बोली में हाव-भावों के द्वारा किया जाता था । इसलिए भरेत मुनि ने प्राकृत की बोलियों का क्षेत्रीय भेदों के अनुसार विवरण दिया है । उनके समय में उत्तर में हिमालय की तलहटो से लेकर पंजाब तक और पश्चिम में सिन्ध से ले कर गुजरात तक प्राकृत प्रतिष्ठित थी। ईसा की प्रथम शताब्दी से १-वहीं, पृ. १३७ २-टी. बरो : द संस्कृत लैंग्वेज, अनु. डा. भोलाशङ्कर व्यास, वाराणसी, १९६५, पृ. ५५ ३-सुकुमार सेन : ए कम्पेरेटिव ग्रैमर आव मिडिल इण्डो-आर्यन, द्वि. सं. १९६० पृ. १३ ४-ज्यूल ब्लाख : भारतीय-आर्यभाषा, अनु० लक्ष्मीसगर वार्ष्णेय, १९६३, पृ. १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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