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________________ ८३ कहते हैं, वह प्राकृतों के विकास देश का अधिकांश धार्मिक साहित्य व्याकरण की भाषा के रूप रूढ ह लेकर जिस युग को संस्कृत की समृद्धि का काल का भी काल था । इन मध्यभारतीय बोलियों में ही लिखा गया । संस्कृत इस समय धार्मिक साहित्य और चुकी थी, जिस से उस का विकास रुक गया' । स्वयं महर्षि पाणिनि " बहुल' छन्दसि " कह कर वैदिक भाषा में प्रयुक्त विभिन्न रूपों (विभाषागत) का विवरण प्रस्तुत कर रहे थे । उन के अतिरिक्त महर्षि यास्क और पतंजलि भी वैभाषिक प्रयोगों का स्वच्छन्दता से उल्लेख करते हुए दिखलाई पड़ते हैं । विकास को इस धारा से नव्य भारतीय आर्यभाषाओं का विकास हुआ । नव्य भारतीय आर्यभाषाओं तथा बोलियों में ऐसे कई सौ शब्द हैं, जिनकी व्युत्पत्ति भारतीय आर्य उद्गमों से नहीं मिलती । हां, उन के प्राकृत पूर्व-रूपों का अवश्य सरलता से पुन निर्माण किया जा सकता है । उन का बाहरी रूप सामान्यतः युग्म व्यंजनों या नासिकयों एवं तत्सम्बन्धित स्पर्शो एवं महाप्राणों से बना हुआ बिलकुल प्राकृत जैसा है तथा उन से व्यक्त भाव भी न्यूनाधिक अंशों में मूलगत या प्राथमिक रहते हैं । उदाहरण के लिए अड्डा व्यवधान, परदा; अट्टक्क-रुकावट, खिल्ला - खीला, कोरा - अपरिष्कृत या खुरदुरा; खोट-धब्बा, खोस्स - भूसा, गोड्ड-पांव, गोद-गोद, मुङ्ग-मूंगा, ढूंढ-ढूंढ़ना, फिक्का - फीका; लोट्ट - लोटना; लुक्क छिपना, इत्यादि । इस प्रकार के लगभग ४५० भारतीय आर्य पुनर्गठित शब्द नेपाली कोष में दिये हुए हैं, जिन के मूल शब्द अभारतीय-यूरो पीय, अनिश्चित अथवा अज्ञात हैं। मध्य भारतीय आर्यभाषाओ में अन्य बोलियों तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का आदान प्रदान स्वच्छन्दता से हुआ है । संस्कृत के सम्बन्ध में भी जो यह कहा जाता हैं कि महर्षि पाणिनि ने आर्येतर प्रजाओं के परस्पर लेन देन के कारण आर्यभाषा में अपनाये जाने वाले विदेशी शब्दों को रोकने के लिए संस्कृत भाषा को कटोर नियमों में बांध कर उसे "अमर" बना दिया, यह किसी एक अंश तक ही ठीक है । क्योंकि हम देखते है कि वैदिक भाषा की अपेक्षा संस्कृत में विदेशी भाषाओं के शब्द बहुत हैं । आ. पाणिनि ने जहाँ गणपाठों का विधान कर भाषा को व्यवस्थित बनाया, वहीं "पृषोदरादि" तथा 'स्वार्थिक' प्रत्यय आदि का अभिधान कर आगत शब्दों के लिए प्रवेश द्वार भी निर्मित कर गए । अतएत केवल अन्य भाषाओं और देशी बोलियों के शब्द ही संस्कृत में नहीं अपनाये गये वरन् नये शब्दों का निर्माण और पुननिर्माण भी किया गया । भारत तथा बृह. उत्तर भारत में संस्कृत का विकास इन्हीं मूल प्रवृत्तियों के साथ लक्षित होता हैं । डा. सांकलिया के अनुसार संक्षेप में भारतीय आर्यभाषाओं का विकास इस प्रकार बताया जा सकता हैं : प्रथम प्राकृत ( ई. पू. ३,००-१०० ई.) अनन्तर संस्कृत (१,०० - ७,०० ई.) और तदन १-डा. आइ. जे. एस. तारापोरवाला : संस्कृत सिन्टेक्स, दिल्ली, १९६७, पृ० १३ २ -, चतुर्थ्यर्थे बहुल छन्दसि' (अष्टाध्यायी २ ३.६२), भाषायामुभयमन्वध्यायम् (निरुक्त १ अ., २ पा०, ४ खं . ) प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् (अष्टा. ७. २.८८ ), भाषायां सदवसश्रुवः (अष्टा. ३. २. १०८), प्रत्यये भाषायां नित्यम् ( कात्यायन वार्तिके), नेति प्रतिषेधायो भाषायाम् (निरुक्त १ अ.), सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे लोकतोऽर्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः । ( महाभाष्य - पतंजलि ) ३ - डा० सुनीतिकुमार चटर्जीः भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि. सं. १९५७, पृ० १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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