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.. कपोत-दुर्भाग्य दायक (ऋग्वेद १०,१६५,१), लांगल-हल (ऋग्वेद), वार-घोडे की पूंछ (ऋग्वेद १,३२,१२), मयूर (ऋग्वेद १,१९१,१४), शिम्बल-सेमल पुष्प (ऋग्वेद ३,५३, २२) इत्यादि जो प्रजिलुस्कीने ऐसे अनेक शब्दों की सूची दी है' । काल्डबेल ने भी संस्कृत में अधिगृहीत ऐसे अनेक शब्दों की एक लम्बी सूची विस्तृत विवरण के साथ दी है । यद्यपि संस्कृत वैयाकरणों की दृष्टि में इस प्रकार के शब्द तथा देशी उपादानों के सम्बन्ध में कोई दृष्टि नहीं थी और न उनमें से किसी ने इस बात का विचार ही किया था कि कितने शब्द या उनके मूल रूप (धातु) देशी हैं और कौन से आगत शब्द विदेशी हैं । परन्तु काल्डंबेल, गुण्डर्ट, सिलवां लेवी, प्रजिलुस्की, अमृत रो और ब्लूमफील्ड आदि विद्वानों की खोजों से अब यह निश्चित हो गया है कि भारतीय आर्यभाषाओं में बहुत बड़ी मात्रा में विदेशी उपादान लक्षित होते हैं । ब्लूमफील्ड ने कुछ शब्दों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला था कि पालि-प्राकृत में प्राग्वैदिक बोलियों के शब्द-रूप निहित हैं।-वेदों में शिष्ट भाषा का प्रयोग किया गया है । वैदिक युग की बोलचाल की भाषा प्राकृत ही थी, जो कुछ बातों में संहिताओं की साहित्यिक भाषा से भिन्न थी । अनेक वैदिक युग की बोलियों के शब्द आज भी विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित हैं । इन प्राकृत बोलियों की एक प्रमुख विशेषता 'देशी' शब्दों की बहुलता है । ऋग्वेद आदि में प्रयुक्त "वंक (वक्र), मेह (मेघ), पुराण (पुरातन) तितउ (चालनी), जूर्ण (जना, पुराना) उलूखल (उदूखल, ओखली), उच्छेक (उत्सेक) और अजगर आदि प्राकृत बोलियों के शब्द उपलब्ध होते हैं। इन देशी शब्दों की ग्रहणशीलता 'देशी' की प्राचीनता को सिद्ध करती है । ज्यूल ब्लाख ने भो ‘देशी' को प्राकृत का प्राचीन रूप कहा है । उन के ही शब्दों में देशी प्राकृत का एक प्राचीन पूर्वरूप है, जो बहुत रोचक है । क्योंकि इससे उसे छोड़ कर अज्ञात भाषाओं के अस्तित्व का पता चलता है । 'देशी' केवल शैली और आज भी पायी जाने वाली भाषाओं की शब्दावली में लिये गये अंशों की और संकेत करती है। प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक बीम्स के अनुसार देशी शब्द सदा से लोकबोलियों में प्रयुक्त रहे हैं । साहित्य की भाषा में प्रायः उन के प्रयोग नहीं मिलते । प्रथम अवस्था .
भाषा-विकास की प्रथम अवस्था में ऋग्वेद की भाषा में मुख्यतः 'र' पाया जाता है, किन्तु प्राकृत-बोलियों में 'ल' भी मिलता है । साथ ही भाषा के इतिहास से हम यह भी भलीभांति जानते हैं कि प्राचीन ईरानी भाषा में प्रत्येक भारोपीय 'ल' का परिवर्तन 'र' में हो गया था । वाकरनागल का यह कथन उचित ही प्रतीत होता है कि ऋग्वेद के प्रथम मण्डलों की अपेक्षा दशम मण्डल की भाषा में अत्यन्त परिवर्तन लक्षित होता है" । अतएव इस
१-द्रष्टव्य : प्रि-आर्यन एण्ड प्रि-ट्रैविडियन, पृ०९-१०
२-राबर्ट काल्डबेल : ए कम्पेरेटिव ग्रैमर आव द द्रविडियन आर साउथ-इण्डियन फेमिली आव लैंग्वेजेज, मद्रास. तृतीय संस्करण, १९६१, पृ० ५६७-५८८
३-ज्यूल ब्लाख : भारतीय-आर्य भाषा, अनु० डा० लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय. १९६३ पृ० १५
४-सं. आर० सी० मजमदार : द वैदिक एज, जिल्द १, पृ० ३३५ . .. ५-वही, पृ० ३३६
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