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________________ की बोली में शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा के अभिलेख, मध्यभारतीय बोली में वैराट, दिल्ली टोपरा, सारनाथ और कलिंग आभलेख, पश्चिमी में गिरनार और बम्बई में सोपारा के अभिः लेख एवं दाक्षिणात्य में दक्षिणी अभिलेख सम्मिलित हैं । पश्चिमोत्तरीय में दीर्घ स्वरों का अभाव, ऊम्म व्यंजनों का प्रयोग, अन्तिम हलन्त व्यंजनों का अभाव, रेफ का प्रयोग एवं प्रथमा विभक्ति एक बचन में एकारान्त शब्दों का अस्तित्व पाया जाता है। मध्यभारतीय बोली मैं 'र' के स्थान पर 'लू', प्रथमा एक वचन में एकारान्त रूप का सद्भाव, स्वरभक्ति का अस्तित्व, 'अहं' के स्थान पर 'हकं' का प्रयोग, 'तु' के स्थान पर 'तवे', 'तुम्हाण' अथवा 'तुज्झाण' के स्थान पर 'तुफाकं' एवं 'कृ' धातु के 'क्ता' के स्थान पर 'ट' का प्रयोग पाया जाता है । पश्चिमीय वोली में 'र' का प्रयोग, अधोवर्ती रेफ का शीर्षवर्तो रेफ के रूप में प्रयोग, प्रथमा एक वचन में ओकारान्त रूप, 'द्ध' के स्थान पर 'इढ' एवं सप्तमी विभक्ति के एक वचन में 'स्मि' के स्थान पर 'म्हि' का प्रयोग पाया जाता है । दाक्षिणात्य बोली में मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग, तालव्य 'ज' का प्रयोग, स्वरभक्ति की प्राप्ति, 'त्म' के स्थानपर 'त्प', ऊष्म वर्गों का दन्त्य वर्ण के रूप में प्रयोग एवं 'तु' के स्थान पर 'तवे' का प्रयोग मिलता है । अशोक के शिलालेखों के अतिरिक्त दो अन्य प्राकृत अभिलेख भी उल्लेखनीय हैं । ये हैं-कलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख और यवन राजदत हिलियोदोरस का बेसनगर अभिलेख । इन अभिलेखों में प्राचीन भारतीय आर्यभाषा से परिवर्तन की प्रवृत्तियां स्पष्ट लक्षित होती हैं। - ई० पू० १,००० से ६,०० वर्षों का काल भारतीय आर्यभाषा का संक्रान्तिकाल कहा जा सकता है। विभिन्न आर्य तथा आर्येतर प्रजाओं के सम्पर्क से इस दीर्घ काल की अवधि में एक ऐसा भाषा-प्रवाह लक्षित होने लगा था, जिसमें विभिन्न जातियों तथा भाषाओं के आगत शब्द आर्य बोलियों में समाहित हो गए थे और आर्यभाषा में एक नया परिवर्तन लक्षित होने लगा था । अतएव वैयाकरणों और दोर्शनिकों ने आर्य की साधुता की ओर लक्ष्य दिया । भाषाविषयक परिवर्तन के वेग को अवरुद्ध करने के लिए वैयाकरणों ने दो महान कार्य किए । प्रथम प्रयत्न में उन्होंने गणों की व्यवस्था की । महर्षि पाणिनि ने “पृषोदरादि'' गणों की सृष्टि कर शब्द-सिद्धि का एक नया मार्ग ही उन्मुक्त कर दिया। दसरे प्रयत्न में स्वार्थिक प्रत्यय का विधान कर देशी तथा म्लेच्छ भाषाओं से शब्दों को उधार लेकर अपनाने की तथा रचाने-पचाने की एक नई रीति को ही जन्म दिया । इन दोनों ही कार्यो से संस्कृत का शब्द-भण्डार विशाल हो गया और भाषा स्थिर तथा निश्चित हो गयी । सम्भवतः इसी ओर लक्ष्य कर मीमांसादर्शन में शबरमुनि कहते हैं कि जिन शब्दों को आर्य लोग किसी अर्थ में प्रयोग नहीं करते, किन्तु म्लेच्छ लोग करते हैं; यथा : पिक, नेम, सत, तामरस, आदि शब्दों में सन्देह है । ऋग्वेद में प्रयुक्त कई शब्द मुण्डा भाषा के माने जाते हैं । उदाहरण के लिए कुछ शब्द हैं : १-वहीं, पृ० ७८ से उद्धृत ...... २-"चोदित तु प्रतीयेत अविरोधात् प्रमाणेन ।” “अथ यान्शब्दान् आर्या न कस्मिश्चिदर्थे आचरन्ति म्लेच्छास्तु कस्मिश्चित् प्रयुञ्जते यथापिक-नेम-सत-तामरस आदि शब्दाः तेषु सन्देहः । -शबरभाष्य, अ० १, पा०३, सू० १. अ० ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
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