SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वररुचि, भामह और वसन्तराज का विशेष रूप से उल्लेख किया है। माण्डव्य का रामतर्कवागीश ने और कपिल का रामशर्मा तथा मार्कण्डेय ने नामोल्लेख किया हैं ।' यद्यपि प्राकृत के प्राच्य शिलालेख कम मिलते हैं, पर प्रवृत्ति भेद से डा० मेहन्दाले ने दक्षिणी, पश्चिमी, मध्यदेशीय और प्राच्यभेद माने हैं । भौगोलिक दृष्टि से इस प्रकार के चार भेद प्रवृत्तिगत भिन्नता के कारण अत्यन्त प्राचीनकाल से बराबर आज तक बने हुए हैं। प्राचीन वैयाकरणों ने भी इन भेदों का उल्लेख किया है । भारतीय आर्यभाषाओं के इतिहास को तीन अवस्थाओं में विभक्त करने का एक क्रम प्रचलित हो गया है । वास्तव में ये अवस्थाएं एक ही भाषा प्रवाह को तीन विभिन्न युगीन स्थितियाँ हैं जो नाम-रूपों के भेद से अलग-अलग नामों से अभिहित की गयीं। ऐतिहासिक काल-क्रम की दृष्टि से बोलियों की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन करना एक भाषाविद का कार्य है। डा० ए० एम० घाटगे ने क्षेत्रीय भेदों के अनुसार उत्तर-पश्चिम में उपलब्ध अशोक के शिलालेख मानसेहरा ओर शाहबाजगढी, खरोष्ट्री धम्मपद की प्राकृत बोली तथा पैशाची और उस की सम्भावित उपबोलियां, पूर्व में गंगा और महानदी की तराई में उपलब्ध अशोक के शिलालेख, सतनक के रामगढ़-शिखालेख तथा नाटकों में प्रयुक्त मागधो प्राकृत और उसके उपविभाग, पश्चिम में गिरनार, बौद्ध- साहित्य की भाषा पालि, सातवाहन तथा पश्चिमीय क्षत्रप राजाओं के शिलालेखों की प्राकत और महाराष्टी प्राकत मध्यदेश में शौरसेनी और पूर्व की ओर जैनागमों की अर्धमागधी एवं तादृश अशोकशिलालेखीय बोली परिलक्षित होती है। किन्तु इस विभाजन में कुछ बोलियाँ छूट जाती हैं । अतएव ऐतिहासिक कालक्रमानुसार किया गया वर्गीकरण अधिक अच्छा और सुनिश्चित है । प्राचीनतम अवस्था में अनेक शिलालेख, पालि, अर्धमागधी और पैशाची की गणना की जाती है । परवर्ती अवस्था में शौरसेनी, मागधी, जैन महाराष्ट्री और जैन शौरसेनी निर्दिष्ट की गयी हैं । अनन्तर उत्तरकालीन विकास में महाराष्ट्रो प्राकृत और विभिन्न अपभ्रंश बोलियां आती हैं। अशोक के लगभग चौंतीस अभिलेख मिलते हैं। अशोक के शिलालेखों मे पैशाचो, भागधों और शोरसेनी प्राकृत की प्रवृत्तियां लक्षित होती हैं । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने "अशोककालीन भाषाओं का भाषाशास्त्रीय सर्वेक्षण' शीर्षक लेख में बताया है कि अशोक के समय की पश्चिमोत्तरीय-(पैशाच-गान्धार), मध्यभारतीय (मागध), पश्चिमीय (महाराष्ट्र), और दाक्षिणात्य (आन्ध्र कर्णाटक) बोलियां उस ससय की जनभाषाएं हैं । पश्चिमोत्तरीय वर्ग १-डा० सत्यरंजन बनजी : फ्रेग्मेन्टस आव द अर्लिएस्ट प्राकृत ग्रैमेरियन्स, श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ, भा० १, १९६८, पृ० २७०-२७४ २-डा० एम० ए० मेहन्दाले : हिस्टारिकल ग्रामर आव इन्स्क्रिप्शनल प्राकृत्स, परि. ___चय, पृ० १५ ३-द्रष्टव्य : निरुक्त (यास्क): द्वितीय अध्याय, षष्ठ पाद । ४-डा० ए० एम० घाटगे : हिस्टारिकल लिंग्विस्टिक्स एण्ड इण्डो-आर्यन लैंग्वेजेज बम्बई, १९६२, पृ०११२ ५-डा नेमिचन्द्र शास्त्री : परिषद्पत्रिका, भाषा-सर्वेक्षणांक, बर्ष ८, अंक ३-४, पृ० ७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014005
Book TitleProceedings of the Seminar on Prakrit Studies 1973
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK R Chandra, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages226
LanguageEnglish
ClassificationSeminar & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy