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इन से किंचित् भिन्न थों । रामशर्म ने विभाषा-विधान नामक तृतीय स्तबक में शाकारिकी, चाण्डालिका, शाबरी, आभीरिका, टक्को आदि के लक्षण एवं स्वरूप का प्रतिपादन किया है । इसी प्रकार तृतीय शाखा में नागर, वाचड और पैचाशो अपभ्रंश का विवेचन किया गया है। ... तीर्थंकर महावीर और भ० गौतमबुद्ध की भाषा के नमूने आज ज्यों के त्यों नहीं मिलते । अशोक के शिलालेखों (२५० ई० पू०), भारतवर्ष के विभिन्न भागों में प्राप्त प्राकृत के जैन शिलालेखों तथा पालि-साहित्य के कुछ अंशों में प्राकृत के प्राचीनतम रूप निबद्ध हैं । डा० चटर्जी ने भ० बुद्ध के समय को उदीच्य, मध्यदेशीय तथा प्राच्यविभाग की तीन प्रादेशिक बोलियों का उल्लेख किया है। इन के अतिरिक्त ई० पू० तीसरी शताब्दी की खोतन प्रदेशीय भारतीयों की पश्चिमोत्तरी गान्धारी प्राकृत तथा ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग प्रयुक्त तुर्किस्तान की निय प्राकृत एवं ई० पू० छठी शताब्दी के मध्य की काठियावाड़ से सीलोन पहुँचायी गयी प्राकृत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।'
इस देश में ईसा पूर्व शताब्दी में मुख्य रुप से भारतीय आर्यबोलियों के चार विभाग प्रसिद्ध थे: . (१) उदीच्य (उत्तर-पश्चिमी बोली), (२) प्रतीच्य (दक्षिणी-पश्चिमी बोली), (३) प्राच्यमध्य (मध्यपूर्वी) और (४) प्राच्य (पूर्वी बोली) । अशोक के शिलालेखों तथा पतंजलि के महाभाष्य के उल्लेखों से भी यह प्रमाणित होता है । ___अल्सडोर्फके अनुसार भारतीय आर्यभाषाकी सबसे प्रानीनतम अवस्था वैदिक ऋचाओंमें परिलक्षित होती है। कई प्रकारकी प्रवृत्तियों तथा भाषागत स्तरों के अनुशीलनसे यह स्पष्ट है कि बोली ही विकसित हो कर संस्कृत काव्योंकी भाषा के रूप में प्रयुक्त हुई । अतएव उस में ध्वनि-प्रक्रिया तथा बहुतसे शब्द बोलियोंके समाविष्ट हो गए हैं । शास्त्रीय संस्कृत का विकास. काल चौथी शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी तक रहा है । केवल ' संस्कृत-साहित्य में ही नहीं, वैदिक भाषा में भी बहुत से ऐसे शब्द हैं जो निश्चित रुप से ध्वनि प्रक्रियागत परिवर्तनों से सम्बद्ध प्राकृत के प्रभाव को निःसन्देह प्रमाणित करते हैं । भौगोलिक दृष्टि से शिक्षा ग्रन्थ में स्वरभक्ति का उच्चारण जिस क्षेत्र में निर्दिष्ट किया गया है, वह अर्धमागधी और अपभ्रंश का क्षेत्र है । प्राकृत के प्राचीन प्राच्य वैयाकरणों में शाकल्य, माण्ड० कोहल और कपिल का उल्लेख किया गया है। यद्यपि उन की रचनाएं अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, किन्तु मार्कण्डेय ने “प्राकृतसर्वस्व" में शाकल्य और कोहल के साथ ही भरत
१-चटर्जी, सुनीतिकुमार : भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि० सं० १९५७, पृ०८३ २-सुकुमार सेन : ए कम्परेटिव अमर आव मिडिल इण्डो-आर्यन, द्वि० सं० १९६०, पृ०७
३-लुडविग अल्सडोर्फ : द ओरिजन आव दी न्यू इण्डो-आर्यन स्पीचेज, अनु० एस० एन० घोषाल, जर्नल आव द ओरि० इ०, बड़ौदा, जिल्द १०, सं० २, दिस० १९६०,
पृ० १३२-१३३ ४-सिद्धेश्वर वर्मा : द फोनेटिक आब्जर्वेशन्स आव इण्डियन ग्रैमेरियन्स, दिल्ली,
१९६१, पृ०५०
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