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गीतिओं को प्रथम स्थान दिया गया है ।' - इन गीतियों के विधान को देखकर और महाकवि कालिदास आदि की रचनाओं में प्रयुक्त गीतियों को बहुलता से यह निश्चय हुए बिना नहीं रहता कि आद्य लोक-साहित्य गीतियों में निबद्ध रहा होगा । मौखिक रूप में गीतियों का प्रवन सहज तथा सुकर है ।
"प्राकृत" का एक निश्चित भाषा के रूप में विस्तृत विवरण हमें आ० भरत मुनि के "नाट्यशास्त्र" में मिलता हैं । प्राकृत के सम्बन्ध में उन का विवरण इस प्रकार है : ... (१) रूपक में वाचिक अभिनय के लिए संस्कृत और प्राकृत दोनों पाठ्य लोकप्रचलित हैं। इन दोनों में केवल यही अन्तर है कि संस्कृत संस्कार (संवारी) की गयी भाषा है और प्राकृत संस्कारशून्य अथवा असंस्कृत भाषा है । कुमार, आपिशलि आदि वैयाकरणों के द्वारा जिस भाषा का स्वरूप नियत एवं स्थिर कर दिया गया हैं वह “संस्कृत" है किन्तु जो अनपढ़, देशी शब्दों से भरित एवं परिवर्तनशील है वह “प्राकृत" है ।
इस से यह पता लगता है कि वास्तव में भाषा का प्रवाह एक ही था, किन्तु समय की धारा में होने वाले परिवर्तनों के कारण प्राकृत लोकजीवन का अनुसरण कर रही थी, जबकि संस्कृत व्याकरणिक नियमों से अनुशासित थी । अभिनवगुप्त ने “नाट्यशास्त्र" की विवृति में इसी तथ्य को स्पष्ट किया है ।*
(२) आ० भरतमुनि ने वैदिक शब्दों से भरित भाषा को अतिभाषा, संस्कृत को आर्यभाषा और प्राकृत को जातिभाषा के नाम से अभिहित किया है । जातिभाषा से उन का अभिप्राय जनभाषा से हैं । बोलियों के रूप में स्पष्ट ही सात तरह की प्राकृतों का निर्देश किया गया है । इन के नाम हैं : मागघी, अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी,
ल्हीक और दाक्षिणात्य । वास्तव में बोलियों के ये भेद प्रादेशिक आधार पर किए गए हैं । “प्राकृतकल्पतरु" में भी प्रथम स्तबक में शौरसेनी, द्वितीय स्तबक में प्राच्या, आवन्ती, बाहीक, मागधी, अर्धमागधी और दाक्षिणात्या का विवेचन किया गया है । इस विवेचन से यह भी स्पष्ट होता है कि मूल में पश्चिमी और पूर्वी दो प्रकार के भाषा-विभाग थे । बोलियां १-नाट्यशास्त्र, ३२, ४३१
। एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुणवर्जितम् । विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थान्तरात्मकम् ॥ नाट्यशास्त्र, अ०१७,
श्लो० २ "संस्कृतमेव संस्कारगुणेन यत्नेन परिरक्षणरूपेण वर्जित प्राकृतं, प्रकृतेरसंस्काररूपायाः आगतम् । नन्वपदंशानां को नियम इत्याह नानावस्थान्तरात्मकम्...देशीविशेषेषु प्रसिद्धया नियमितमित्येव ।" तथा-"देशीपदमपि स्वरस्यैव प्रयोगावसरे प्रयुज्यत इति तदपि प्राकृतमेव. अव्युत्पादितप्रकृतेस्तज्जनप्रयोज्यत्वात् प्राकृतमिति केचित् ।” -विवृति (अभिनवगुप्त)
३-नाट्यशास्त्र, १७, २७ ४-मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यर्धमागधी । वाल्हीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः । -नाट्यशास्त्र, अ० १७, श्लो०४९
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