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जैन दर्शन में नारी भावना डॉ. श्रीमती शान्ता भानावत
जैन दर्शन आत्मवादी, पुरुषार्थवादी और समतावादी दर्शन है। यह सदैव आत्मजय एवं गुण--विकास को महत्त्व देता रहा है । श्रमण संस्कृति के महान उन्नायकों ने आत्मसाधना के क्षेत्र में जातिभेद, वर्गभेद और रंगभेद को कभी स्वीकार नहीं किया । प्रभु महावीर ने आत्म विकास, धर्मसाधना एवं मुक्ति प्राप्त करने का सबको समान रूप से अधिकार दिया और कहा : आत्मस्वरूप की दृष्टि से विश्व की समस्त आत्माएँ एक सी हैं । जो अनन्त गुणयुक्त आत्म-ज्योति पुरुष में हैं, वैसी ही ज्योति नारी में भी है। अतः साधना की दृष्टि से जैन दर्शन नर-नारी में कोई भेद नहीं करता । यहाँ जो अधिकार पुरुष को प्राप्त है वे सब स्त्रियों को मी । समाज की संरचना में नारी और पुरुष दोनों का समान महत्व रहा है। दोनों विश्वरथ के दो पहिये हैं । उसमें न कोई छोटा है
और न कोई बड़ा । दोनों की समानता ही रथ की गति-प्रगति है । इतिहास के पृष्ठ उलटकर देखे जायें तो प्रतीत होगा कि नारीजाति ने सदैव मानवजाति को नई ज्योति, नई प्रेरणा और नई चेतना दी है । इतिहास नारी के उज्ज्वल आदर्श एवं तए-त्यागनिष्ठ जीवन का साक्षी है। जैन धर्म में नारी के अधिकार . जैन धर्म की सबसे बड़ी उदारता यह है कि उसने पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी तमाम धार्मिक अधिकार दिये हैं । यदि पुरुष पूजा-पाठ, धर्मग्रन्थों का अध्यायन, मुनिजीवन अंगीकार कर सकता
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