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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २
है तो नारियाँ भी ये सब अनुष्ठान कर सकती हैं । यहाँ केवल धार्मिक अधिकार ही नहीं, सामाजिक एवं साम्पतिक अधिकार भी स्त्रियों को पुरुषां के समान ही प्राप्त हैं। यह बात अवश्य है कि वैदिक एवं अन्य धर्मों में नारियों को इतनी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं थी । वहाँ नारी को पूजा, धर्मशास्त्र अध्ययन, संन्यस्त होने, दान देने, मोक्षप्राप्ति आदि के धार्मिक अधिकार नहीं दिये गये हैं। सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकारों में भी पुत्र के समान पुत्री को सम्पत्ति में सहभागी नहीं माना हैं । तत्कालीन समाजव्यवस्था में नारी पूर्ण रूप से उपेक्षित और पद-दलित कर दी गई थी । समाज में उसका कोई स्थान नहीं था। वह मात्र भोग की सामग्री समजी जाती थी । 'स्त्री शूद्रो नाधीयताम , 'स्त्रियां वेश्या स्तथा शूद्राः येपि स्यु: पापयो नमः' जैसे वचनों की मान्यता थी।
बौद्ध दर्शन में नारी के प्रति सम्मान और आदर के भाव मिलते हैं । उस युग की गणिकाओ के जीवन को बदलने के लिये भगवान बुद्ध ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया । इतना कुछ होने पर भी भगवान बुद्ध नारी को अपने भिक्षु संघ में स्थान नहीं दे सके । जब कभी उनके प्रमुख शिष्य आनन्द उनके सामने नारी को श्रमणदीक्षा देने की बात रखते तो वे उस बात को टालने में ही अपना हित समझते । उन्होंने आनन्द के आग्रह को रखने के लिये ही भिक्षुणी संघ की स्थापना की पर साथ ही स्पष्ट कर दिया कि मेरा यह शासन एक हजार वर्ष चलता वह अब पाँच सौ वर्ण ही चलेगा। उनकी इस भावना से यह स्पष्ट है कि तथागत बुद्ध के मन में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का भय था और थी नारी के चरित्र के प्रति आशंका । पर महावीर इन सब भूमिकाओं से उपर ऊठ चूके थे । उनके मन में कोई भय या आशका नहीं थी । उन्होंने नारीको उसका खोया हुआ सम्मान दिलाया और कहा कि नारी
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