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जैन साहित्य समारोह - गुच्छ
१. गिरी, ३. पुरी, ३. भारती, ४. सागर, ५. आश्रम, ६. पर्वत, ७. तीर्थ, ८. सरस्वती, ९. बत, १०. आचार्य I
श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में नामकरण विधि का सब से प्राचीन, विशद और स्पष्ट उल्लेख खरतरगच्छ की रूद्रपल्लीय शाखा के आचार्य श्री वर्द्धमानसूरिजी रचित 'आचार दिनकर' नामक ग्रन्थ में विस्तार के साथ मिलता है जो वि. सं. १४६८ कार्तिक शुक्ल १५ को जालंधर - देश ( पंजाब ) के नन्दवनपुर ( नादौन ) में विरचित है। इस नाम - परिवर्तन का कारण बतलाते हुए लिखा है कि :
पूर्व हि जैन साधुत्वे सूरित्वेपि समागते । न नाम्ना परिवर्तोमून्मुनीनां मोक्ष गामिनां || ६ || साम्प्रतं गच्छ संयोगः क्रियते वृद्धि हेतवे । महास्नेहायायुषे च लाभायगुरुशिष्ययोः ॥ ७॥ ततस्तेन कारणेन नाम राश्यनुसारतः । गुरुप्रधानतांनीtar विनयेनानुकीर्तयेत् ॥८॥
नन्दी, नाम के पूर्वपद के सम्बन्ध में पृष्ठ ३८६ में लिखा है कि :
नाम तथा योनि १. वर्ग, २. लाभालाभ, ३. गण, ४. राशि, भेद, ५. शुद्ध नामं दधात
नामः स्यात्पूर्वतः साधोः शुभो देव गुणागमैः । जिनकी चि रमाचन्द्र शीलोदय धनैरपि ॥२०॥
विद्याविनय कल्याणैर्जीव मेघ दिवाकरैः । मुनि त्रिभुवना भोजेः सुधा तेजो महानृपैः ||२१|| दया भाव क्षमा सूरैः सुवर्ण मणि कर्मभिः । आनन्दानन्त धर्मैश्व जय देवेन्द्रसागरैः ॥२२॥
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