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जैन मुनियों के नामान्त पद या नन्दियाँ
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नाम-परिवर्तन की प्रथा श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदाय में प्रचलित है जो स्थानकवासी तेरापंथी, लौका, कडुआमती के अतिरिक्त मूर्तिपूजक संप्रदाय में तो है ही परन्तु वे लोग स्वामी, ऋषि, - मुनि आदि विशेषण मात्र लगा देते हैं । आजकल तो तेरापंथी समान में भी नाम परिवर्तन करने की प्रथा कथंचिंत प्रचलित हो गई है । दिगम्बर सम्प्रदाय में सागर, भूषण, कीर्ति आदि नामान्त पद प्रचलित है । यतः - शान्तिसागर, वेशभूषण, महावीरकीर्ति तथा आनंदनंदी मी विद्यानंद, सहजानन्द आदि के साथ-साथ चन्द्र और सेन भी गण-संघ की परिपाटी प्रचलित है । वर्तमान काल में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय के तपागच्छ में सागर, विजय, विमल और मुनि एवं खरतरगच्छ में भी - सागर व मुनि नाम प्रचलित है । पायचन्दगच्छ में चन्द्र और अंचलगच्छ में सागर नामान्त पद ही पाये जाते हैं जब कि प्राचीन इतिहास में इनके अतिरिक्त बहुसंख्यक नामान्त पद व्यवहृत देखने में आते हैं । हमें इस निबंध में इन नामान्त पद जिन्हें नन्दी कहा जाता है उस पर विस्तार से विचार करना है ।
इस प्रकार के नामपरिवर्तन की प्रथा भारत और यूरोप आदि देशों के राज्यतंत्र में पाई जाती ही है पर दीक्षान्तर नामपरिवर्तन की . प्रथा वैदिक संप्रदाय में भी प्राप्त है । ' दर्शन प्रकाश नामक ग्रन्थ में सन्यासियों के दस प्रकार के नामों का उल्लेख संप्राप्त है । यतः
१. गिरी -सदाशिव, २.
६.
रुद्र, ५. अरिण - ॐकार, शिव, ९ पुरी - अक्षर, १०.
पर्वत - पुरुष, ३. सागर-शक्ति, ४. बन
आगम- विष्णु, ८ मठ
तीर्थ - ब्रह्म, ७. भोरती - परब्रह्म ।
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भारत का धार्मिक इतिहास ' ग्रन्थ के पृष्ठ १४० में दस नामान्त
-- पद इस प्रकार बतलाये हैं :
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