________________
३६४
जैन साहित्य समारोह आत्मा के द्वारा कर्म सिद्धान्त की स्वीकृति में रहा हुआ है। यद्यपि कर्म सिद्धान्त एक वस्तुनिष्ठ नियम है, किन्तु, उसका नियामक तत्त्व स्वयं आत्मा ही है। कर्म नियम पर आत्मा की यह नियामकता उसकी आचार की पवित्रता के साथ बढ़ती है।
जैन परम्परा में तीन प्रकार की आत्माएं मानी गयों हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इसमें बहिरात्मा इन्द्रियमय आत्मा है और अन्तरात्मा विवेकमय आत्मा है । नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार के दायित्वों की कर्तव्यता का उद्भव विवेकमय आत्मा से होता है, जो इन्द्रियमय आत्मा को वैसा करने के लिए बाध्य करती है। जैन दर्शन और जे० एस्मिल इस सन्दर्भ में एकमत हैं कि सम्पूर्ण नैतिकता और धार्मिकता दायित्व की चेतना का आधार कर्तव्य के विधान से उत्पन्न विवेकमय अन्तरात्मा की तीव्र वेदना ही है । अन्तर केवल इतना ही है कि जहाँ मिल का आन्तरिक आदेश मात्र भावनामूलक है वहाँ जैन दर्शन का आन्तरिक आदेश भावना और विवेक के समन्वय में उद्भूत होता हैं। वह कहता है कि, यदि, तुम्हें अमुक आदर्श को प्राप्त करना है तो अमुक प्रकार से आचरण करना ही होगा। सम्यक्चारित्र का सम्यक्दर्शन (भावना) और सम्यक्ज्ञान (विवेक)के आधार पर होता है । सग्यकूदर्शन और सम्यक्ज्ञान नैतिक और कर्तव्यता के लिए एक आबन्ध प्रस्तुत करते हैं, परिणामतः आत्मा सम्यक्चारित्र(सदाचार)की दिशा में प्रवृत्त होता है ।
चूंकि जैन दर्शन किसी ऐसे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है, जो "कर्म के नियम" का नियामक या अधिशास्ता है। अतः उसमें नैतिक और धार्मिक बाध्यता बाह्य आदेश नहीं है । अपितु, कर्म नियम की दृष्टा अन्तरात्मा निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है।
जैन दर्शन के अनुसार वस्तु स्वभाव को धर्म कहा जाता है और यदि वस्तु स्वभाव ही धर्म है, तो धार्मिक कर्तव्यों की बाध्यता का उद्भव बाहर से नहीं होकर अन्दर से ही होगा। जैन दर्शन में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org