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नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप
३६५. आत्मा का स्वभाव "समता' बताया गया है। अतः “समभाव की साधना" की कर्तव्यता का आधार बाहरी न होकर आन्तरिक है। इसी प्रकार प्राणीय प्रकृत्ति का स्वाभाविक गुण जीजीविषा है और अहिंसा के नैतिक - नियम कर्तव्यता इसी जीजीविषा के कारण हैं । कहा गया है-"सभी जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता”। अतः प्राण वधका निषेध किया गया है। इस प्रकार जैन धर्म में चाहे समभाव की साधना की कर्तव्यता का प्रश्न हो या अहिंसा के व्रत के पालन का प्रश्न हो, उनकी बाध्यता अन्तरात्मा से ही आती है, किसी बाह्यतत्त्व पर आधारित नहीं है । जैन धर्म में नैतिक और धार्मिक कर्तव्यों की अभिन्नता
सामान्यतया कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों ने धर्म और नीति के बीच एक विभाजक रेखा खींची है और इसी आधार पर वे नैतिक
और धार्मिक कर्तव्यों में भी अन्तर करते हैं। वे नैतिक कर्तव्यता को "करना चाहिए" के रूप में और धार्मिक कर्तव्यता को “करना होगा” के रूप में लेते हैं। किन्तु, सामान्य रूप से भारतीय दार्शनिक और विशेष रूप से जैन दार्शनिक नैतिक एवं धार्मिक कर्तव्यता को अभिन्न रूप से ही ग्रहण करते हैं। वे धर्म और नीति के बीच कोई सीमारेखा नहीं खींचते हैं। भारत में धर्म शब्द का ब्यवहार अधिकांश रूप में कर्तव्य एवं सदाचार के अर्थ में ही हुआ है और इस प्रकार वह नीतिशास्त्र का प्रत्यय बन जाता है। भारत में नीतिशास्त्र के लिए धर्मशास्त्र शब्द का ही प्रयोग हुआ है। धर्म और नीति में यह विभाजन मुख्यतया मानवी चेतना के भावात्मक और संकल्पात्मक पक्षों के आधार पर किया है । पाश्चात्य विचारक यह मानते हैं की धर्म का आधार विश्वास या श्रद्धा है, जबकि नैतिकता का आधार संकल्प । धर्म का सम्बन्ध हमारे भावनामक पक्ष से है, जबकि नैतिकता का सम्बन्ध हमारे संकल्पात्मक पक्ष से हैं। सेम्युअल
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