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नैतिक और धार्मिक कर्तव्यता का स्वरूप
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सागरमल जैन
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मोरल आब्लीगेशन (Moral Obligation ) के लिए हिन्दी भाषा में नैतिक प्रभुशक्ति, नैतिक बाध्यता, नैतिक दायित्व या नैतिककर्तव्यता शब्दों का प्रयोग हुआ है । वस्तुतः मारल आब्लीगेशन दायित्व - बोध या कर्तव्यबोध की उस स्थिति का सूचक हैं जहाँ व्यक्ति यह अनुभव करता है कि यह मुझे करना चाहिए । पाश्चात्य नीतिवेत्ताओं के अनुसार नैतिक कर्तव्यता का स्वरूप "यह करना चाहिए" इस प्रकार का है, न कि "यह करना होगा" । पाश्चात्य परम्परा में नैतिक कर्तव्यता का चाहिए " के रूप में और धार्मिक कर्तव्यता को ' होगा " के रूप में देखा गया, क्योंकि धर्म को ईश्वरीय आदेश माना गया । जबकि भारतीय परम्परा में और विशेष रूप से जैन परम्परा में नैतिक और धार्मिक दोनों ही प्रकार की कर्तव्यता की प्रकृति एकसोपाधिक कथन के रूप में है, उसमें " चाहिए" का तत्त्व तो है, किन्तु, उसके साथ एक बाध्यता का भाव भी है। उस में " चाहिए" और " होंगा " का सुन्दर समन्वय है । उसका स्वरूप इस प्रकार का है-यदि तुम ऐसा चाहते हो तो तुम्हें ऐसा करना होगा, अर्थात् यदि तुम मुक्ति चाहते हो तो तुम्हें सम्यक्चरित्र का पालन करना होगा । उसमें बाध्यता में भी स्वतन्त्रता निहित है । इसका कारण यह है कि भारतीय परम्परा में और विशेष रूप से जैन और बौद्ध परम्पराओं में धर्म और नीति के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची गई है और न उन्हें एक-दूसरे से पृथक् माना गया है । पुनः जैन दर्शन के अनुसार नैतिक एवं धार्मिक दायित्व या कर्तव्यता की इस बाध्यता का उद्गम
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