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________________ 374 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा मानें ? अपने द्वारा ही विषम, विचित्र, विविध प्रकार की विभिन्न प्रकार की बनाई हुई सृष्टि को देखकर ईश्वर को तृप्ति या संतोष कैसे हो सकता है? यह संभव भी कैसे हो? यदि तृप्ति-संतुष्टि नहीं है तो ईश्वर क्या और कैसा अनुभव करता है? इस तरह इच्छाजन्य सृष्टि कैसे संभव हो सकती इच्छा में क्या कर्तृशक्ति है? क्या किसी की भी इच्छा से कार्य होता है? इच्छा मात्र से कार्य का होना कैसे संभव है। कोई भी कार्य करने के लिए या कुछ भी बनाने के लिए सहयोगी घटक द्रव्यों की आवश्यकता रहती है और साथ ही उचित प्रयत्न, पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है तभी कार्य संभव है। उदाहरणार्थ एक भवन बनाने के लिए रेता-चूना-इंट, पथ्थर, पानी, मिट्टी, लोहा, लकडा आदि अनेक घटक द्रव्यों की अनिवार्यता रहती है और बनानेवाले कला के जानकार कुशल-कारीगरों की अनिवार्यता भी अवश्यंभावी है। इसी तरह पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि रूपसृष्टि की रचना करते समय मान लें कि ईश्वर कुशल शिल्पी है। परन्तु घटक द्रव्य कुछ भी न हो और इच्छा मात्र से पृथ्वी, पर्वत आदि कैसे बन सकते हैं? क्या सृष्टि को जादूई सृष्टि, या इन्द्रजाल तुल्य मानना? क्या जादूई, इन्द्रजालीय सृष्टि सदाकाल रह सकती है या अल्पकालिक - क्षणिक रहती है? या फिर स्वप्नतुल्य स्वाप्निक सृष्टि मानें जो सिर्फ मिथ्या भासमान हो। और वास्तविकता में कुछ भी नहीं है। तो फिर ईश्वर और इच्छा दोनों निरर्थक सिद्ध हो जाएंगे क्योंकि ईश्वर को फिर करना क्या रहेगा। जहाँ करना कुछ नहीं रहेगा तो इच्छा किस बात की ? सब निरर्थक सिद्ध हो गया। तो सृष्टिकर्तृत्व विशेषण भी ईश्वर के लिए निरर्थक सिद्ध होगा। इससे ईश्वर को सृष्टिकर्ता कहने का कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा। आखिर इच्छा क्या है ? इच्छा राग-द्वेष रूप है। इससे ईश्वर राग-द्वेष रहित वीतरागी भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। वीतरागता तो परमात्मा का मुख्य गुण है, लक्षण है। इस तरह इच्छा आदि के कारण लीला, क्रीडा आदि स्वरूप में
SR No.012087
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Amrut Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBakul Raval, C N Sanghvi
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1994
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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