________________ अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ ___373 कर्ता के अभाव में क्रिया रह ही नहीं सकती है। क्रिया के अभाव में सर्वथा निष्क्रिय कर्ता रह सकता है। परन्तु कर्ता के अभाव में क्रिया सर्वथा नहीं रह सकती है। इच्छा क्रिया स्वरूप है और ईश्वर कर्ता स्वरूप है। इच्छा ईश्वर की समकालीन माननी पडेगी। क्योंकि इच्छा रहित ईश्वर था नहीं और हो भी नहीं सकता। अत: इच्छा अल्पकालीन भी नहीं हो सकती। वह ईश्वर के समानान्तर-समकालीन ही माननी पडेगी। यदि इच्छा नित्य है तो वह सदा ही ईश्वर के साथ रहेगी। और यदि सर्वथा अनित्य मानें तो वह कभी न कभी नष्ट हो जाएगी। और ईश्वर इच्छा रहित हो जाएगे। इस तरह इच्छा के बंधन से मुक्त हो जाएगे तो फिर इच्छा के बिना सृष्टि की रचना कब और कैसे करेंगे? और यदि इच्छा सदा काल नित्य ही रहेगी तो ईश्वर सदा सृष्टि रचना करते ही रहेंगे। और इस तरह करते ही रहेंगे तो सृष्टि अधूरी अपूर्ण ही कहलाएगी। ईश्वर भी इच्छा के बंधन से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएगा। इस तरह उभयत: पाशारज्जु जैसी स्थिति होगी। दोषों की परंपरा छूट नहीं सकती और ईश्वर का स्वरूप शुद्ध निष्कलंक दोषरहित सिद्ध हो नहीं सकता। ___इच्छा सदा सतत प्रवृत्तिशील रखती है। अत: इच्छा की उपस्थिति में ईश्वर सदा-सतत प्रवृत्तिशील रहेगा। वह शान्त स्थिर रह ही नहीं सकता। अत: सतत सृष्टि करता ही रहेगा। दूसरी तरफ यदि इच्छा को अनित्य मानें तो इच्छा की समाप्ति के बाद, इच्छा के अभाव में ईश्वर सृष्टि की रचना करेंगे कैसे? फिर सृष्टि रचना अधूरी रह जाएगी। और सृष्टिकर्ता को सृष्टि की रचना के आधार पर मानने के कारण उसे भी अपूर्ण मानना पडेगा ऐसी परिस्थिति आएगी। फिर दोषमुक्त शुद्ध स्वरूप स्थिर नहीं हो सकता। -- जैसे भोगेच्छावाला संसारी मनुष्य भोग भोगने के बाद इच्छापूर्ति के बाद तृप्त हो जाता है। क्या ठीक वैसे ही ईश्वर भी इच्छापूर्ति होने से तृप्त हो जाता है? क्या ईश्वर अपनी ही बनाई हुई सृष्टि को देखकर तृप्ति का अनुभव करता है? क्या उस तृप्ति से ईश्वर को संतोष होगा?