________________ 375 अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ सृष्टि की रचना, प्रलय, संहार, पालन, कर्मफलदातृत्व, सुख-दुःखदातृत्व आदि अनेक बातों को मानकर, उसे भी ईश्वर में मानकर, या इन सब विचारों को परिपिण्डित स्वरूप की कल्पना करके इसमें ईश्वर का आरोप करना भी उचित न्याय संगत सिद्ध नहीं होता है। अत: इच्छादि स्वरूप सृष्टिकर्तृत्वादि ईश्वर का स्वरूप तर्क, युक्तिसंगत, न्याय सुसंगत सिद्ध नहीं होता है। अत: ईश्वर को शुद्ध परमात्मा कर्म रहित, वीतराग, सर्वज्ञ, मोक्षमार्गदर्शक, अरिहंत मानना ही निर्दोष, कलुषितता रहित सिद्ध होता है। यहाँ तो इच्छादि का दृष्टिकोण लेकर दिशासूचन मात्र किया है। पाठक स्वयं बुद्धि की कसोटी पर कसके आगे बढे और अपनी दृष्टि सम्यग् बनाए। इति शम्।