________________ 360 आखिर... ईश्वरको किस स्वरूप में कैसा मानें ? है। अत: जैन दर्शन को चार्वाकवत् नास्तिक कहना नितान्त मूर्खता है। ईश्वर की सत्ता न स्वीकारनेवाले नास्तिक कहे जाते हैं। सत्ता स्वीकारनेवाले ईश्वरवादी आस्तिक कहे जाते हैं। अनीश्वर शब्द का अर्थ क्या होता है? ईश्वर की सत्ता-अस्तित्त्व को ही न मानना या फिर ईश्वर कर्तृत्व पक्ष को न मानना ? अनीश्वर शब्द से किस अर्थ की ध्वनि निकलती है? ईश्वर सर्वथा है ही नहीं ऐसा सर्वथा अभाव जैन दर्शन नहीं मानता है। सत्ता-अस्तित्व का सर्वथा अभाव नहीं माना है। परन्तु ईश्वर में जो सृष्टिकर्तृत्व का आरोपण किया गया है उसका अभाव जैन दर्शन मानता है। कोई ऐसी आवश्यकता नहीं कि ईवर को मानने के साथ-साथ सृष्टिकारक पक्ष मानना ही चाहिए। नहीं। जैन दर्शन ने सृष्टि की सारी व्यवस्था अलग प्रकार की ही दर्शायी है। अत: ईश्वर में सृष्टिकर्तृत्व पक्ष को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। सृष्टिकर्तृत्व आदि विशेषण ईश्वर के साथ जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। इतने मात्र से जैन दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक कहना बहुत बडी भ्रान्ति होगी। नास्तिक शब्द की ऐसी कोई व्याख्या-या व्युत्पत्ति भी नहीं है। पाणिनि की व्याख्यानुसार “अस्ति-नास्ति मति दृष्टिर्यस्य स:" अस्तिभूत अर्थात् अस्तित्व (सत्ता) रखनेवाले पदार्थो में अस्ति (है ऐसी) मति या दृष्टि रखनेवाला अर्थात् माननेवाला आस्तिक कहलाता है। और ठीक इसके विपरीत अस्तिभूत पदार्थों का अस्तित्त्व-सत्ता होते हुए भी उनमें अस्ति की मति-दृष्टि न रखनेवाला - अर्थात् नास्ति (नहीं है) ऐसी मति-दृष्टि रखनेवाला (न माननेवाला) नास्तिक कहलाता है। पाणिनि की इस व्याख्यानुसार आहेत मत किसी भी रूप से नास्तिक सिद्ध हो ही नहीं सकता। क्योंकि आत्मा-परमात्मा ईश्वर मोक्षादि सभी अस्तिभूत-सत्तावाले तत्वभूत पदार्थों को जैन दर्शन मानता है। स्वीकारता है। न केवल मानता-स्वीकारता हैं अपितु यथार्थ - वास्तविक स्वरूप में वे पदार्थ या तत्त्व ठीक जैसे है वैसे ही यथार्थ स्वरूप में मानता है, स्वीकारता है और वैसा ही कथन प्रतिपादन करता है। अतः आस्तिक ही नहीं परमआस्तिक-सम्यग् दर्शन है। यथार्थवादी दर्शन है।