________________ अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ 361 अनीश्ववर शब्द का सीधा अर्थ है न+ईश्वर=इति अनीश्वर। अर्थात् ईश्वर है ही नहीं। इस अर्थ में निषेधार्थक 'न' लगाकर व्याकरणानुसार अनीश्वर शब्द की रचना की गई है। अत: अनीश्वर शब्द का सीधा अर्थ है ईश्व का अभाव' ईश्वर नहीं है। ईश्वर की सत्ता - अस्तित्व को ही न मानना, न स्वीकारना अर्थात निषेध करना अनीश्वरवादी का कथन है। ईश्वर की सत्ता का सर्वथा अभाव-निषेध करते है। अनीश्वर शब्द से जब ईश्वर की सत्ता का सर्वथा अभाव-निषेध ही सिद्ध हो जाता है तब नास्तिकवादी कैसे करेगा? संभव ही नहीं है। जैसे विश्वमें आकाशपुष्प, शशशंग, वन्ध्यापुत्र है ही नहीं तो फिर वह कैसा है या कैसा नहीं का विचार करने की संभावना ही नहीं रहती। जब कि जैन दर्शन ईश्वर कैसा है' कैसा नहीं की काफी गहरी छानबीन करता है। वह भी क्यों करता है? क्योंकि ईश्वर का यथार्थ-वास्तविक शुद्धतम स्वरूप पाना है इसलिए। अत: जैन दर्शन पहले अनीश्वरवादी बनकर ईश्वर का अभाव-निषेध स्वीकार ले और बाद में वह कैसा है कैसा नहीं की विचारणा करे। यह कैसे संभव हो सकता है ? तो जैन दर्शन ईश्वर को वन्ध्यापुत्र रवपुष्प शशशृंग के जैसा मानता है क्या? और फिर वह कैसा है? कैसा नही? सृष्टिकर्ता नहीं, संहर्ता नहीं, फलदाता नहीं, इत्यादि प्रकार की विचारणा करता है क्या? यह कितनी मूर्खतापूर्ण बात होगी? अत: अनीश्वर शब्द से ईश्वर की सृष्टिकर्तुत्व, फलदातृत्व, आदि पक्षों का निषेध है। इसलिए अनीश्वरवादी जैन कहकर - अनीश्वर शब्द से जैन ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व पक्ष को नहीं मानते हैं इसलिए नास्तिक है ऐसा कहना भी अज्ञानतादर्शक विचार है। अनीश्वर शब्द से ईश्वर कैसा है? कैसा नहीं? यह ध्वनित नहीं होता है। इसलिए ईश्वर के अस्तित्व को माननेवाले स्वीकारनेवाले जैन दर्शन को नास्तिक है ऐसा कहना भारी मूर्खता होगी। जैन दर्शन ईश्वर को मानते हुए भी उसमें सृष्टि-कर्तुत्व, सर्जनहार,