________________ अमृत महोत्सव स्मृति ग्रंथ 359 के आधार पर भी ईश्वर शब्द की रचना सृष्टिकर्ता - संहर्तादि अर्थ में नहीं है। अत: जबरदस्ती किसी भी प्रकारसे ईश्वर शब्द को सृष्टि कर्ता-संहर्तादि अर्थों में मानना अनिवार्य नहीं है। __आस्तिक शब्द सिर्फ अस्तित्व का ही सूचन करता है जबकि 'सम्यग्' शब्द यथार्थता - वास्तविकता का सूचन करता है। अतः सम्यग् शब्द बहुत ज्यादा आगे का ऊंचा और अर्थगंभीर शब्द है। आस्तिक-नास्तिक शब्द तत्त्वभूत पदार्थों के अस्तित्व और नास्तित्व को सूचित करते है। पदार्थ की सत्ता (अस्तित्व) को माननेवाला आस्तिक और उन्हीं की सत्ता होते हुए भी न मानने वाले को नास्तिक कहा जाता है। उदाहरणार्थ आत्मा-मोक्षादि तत्वभूत पदार्थो का अस्तित्व (सत्ता) है उसे माननेवाला धर्मदर्शन - मत या व्यक्तिविशेष भी आस्तिक कहलाता है। उन्हीं आत्मा-मोक्षादि पदार्थों का अस्तित्व (सत्ता) होते हुए भी न माननेवाला धर्म-दर्शन मत या व्यक्तिविशेष नास्तिक कहा जाता है। इस सादी व्याख्या के आधार पर भी जैन दर्शन-व धर्म ईश्वर - आत्मा - मोक्षादि पदार्थों की सत्ता - अस्तित्व को बरोबर मानता है। अत: आस्तिक है। न केवल मानने मात्र से आर्थिक है अपितु अर्थात - वास्तविक स्वरूप में मानने के कारण सम्यग् दर्शन, सम्यग् धर्म है। चार्वाक मत आत्मा-ईश्वर-मोक्षादि किसी भी तत्त्वभूतपदार्थो की सत्ता-अस्तित्व मानता ही नहीं है अत: चार्वाक दर्शन सर्वथा नास्तिक दर्शन है। यह विश्वप्रसिद्ध बात है। यदि चार्वाक दर्शन के जैसा ही जैन दर्शन को भी नास्तिक दर्शन कहा जाय तो क्या जैन दर्शन भी चार्वाक की तरह आत्मा-मोक्षादि नहीं मानता है? नहीं, ऐसा नहीं है। आत्मा-ईश्वर मोक्षादि विषयों के बारे में जैन दर्शन के अनेक ग्रन्थ के ग्रन्थ भरे पड़े हैं यही प्रत्यक्ष प्रमाण है। दार्शनिक इतिहास में भी ऐसा उल्लेख नही मिलता है। आखिर चार्वाक जैसा नास्तिक कहना किसी भी दृष्टि से संभव नहीं हो सकता है। चार्वाक और जैन दर्शन की विचारधारा क्या मिलती है? क्या किसीने तुलनात्मक दृष्टि से मिलाकर देखा भी है? अंशमात्र भी विचारधारा मिलनी संभव नहीं