________________ 87 // नाभेयजिन विज्ञप्तिरूपं स्तवनम् // पूर्वं मया लक्षनृणां समक्षं कक्षीकृतं यच्चरणं विरागात्। किंचित् प्रमादाचरणेन पश्चात् मूढेन सर्वं कलुषीकृतं तत् // 5 // पुरा परापाय विमर्शपूर्वकं ___ मया कुता यद् हृदि कोटि कल्पना। दुरंतपापं समुपार्जितं तया निरर्थकं तन्नरकाधिकारिणा // 6 // मया नृणां धर्मकथासु नित्य मकारिदृगुम्योऽबुकणप्रवाहः। अत्यंत निर्वेदरसस्य पोषणा त्परं न जातं मम कोमलं मनः // 7 // मयाधिक प्राणितलोभत: कृतो निरागसां प्राणभृतां व्यपायः। न ज्ञातमेतत्किल यादृगेव वितीर्यते तादृशमेव लभ्यम् // 8 // अन्योऽन्य दुर्वाक्य विभाषणेन मयाऽर्जितं संसृतिहेतुभूतम्। पापं महत्तस्य विनाशकर्ता स्वामिंस्त्वदीया चरणद्वयी मे // 9 // नित्यं मया मंद इति प्रजल्पितं क्रियासु कैवल्यसुखप्रदासु। लोभाभिभूतेन नवीनवस्तु प्राप्त्यै मुघा भ्रांतमहो समन्तात् // 10 //