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________________ स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी मृणालिनी देसाई 00 काकासाहेब के साथ जब-जब बात की होगी, कितनी सम्पदा पाकर समृद्ध हो गई ! मेरे पिता का 'धनेश्वर' नाम सार्थक हो गया ! 'सहजानंद' यह जीवन का मूलमंत्र काकासाहेब से ही मिला है । मेरा और काकासाहेब का प्रथम मिलन हुआ पूना के पास सिंहगढ़ पर । करीब ५० साल हो गये ! मैं बिल्कुल छोटी थी। उम्र एक साल से भी कम रही होगी। वहां मेरे पिताजी यकायक बीमार हो गये। डॉक्टर उन्हें पूर्ण विश्राम करने के लिए कहते थे, लेकिन मैं उनके बिना एक क्षण भी रहने को तैयार न थी । डॉक्टर का आना-जाना, मेरा रोना-चिल्लाना, परिवार की चिन्ता, अस्वस्थ मनःस्थिति ! हमारे पड़ोस में काकासाहेब ठहरे थे। सहज कुतूहल से हमारे घर आये। मेरा रोना चालू था । वह मेरे पास आये। मुझे बुलाकर कुछ कहने लगे । उनकी आवाज, उनका रूप आदि सब पिताजी से बहुत मिलता-जुलता था। मैं फंस गयी और जब तक पिताजी अस्वस्थ रहे, खुशी से काकासाहेब के पास ठहरी ! तब से काकासाहेब मुझे प्रसन्नता ही देते रहे । निराशा, विफलता आदि शब्दों से तो मानो वह एकदम अपरिचित हैं ! ऋग्वेद के प्रथम ऋषिवर मधुच्छंदा को गुरुमंत्र मिला था - "चर" ( चलते रहना) । बस, वही काकासाहेब का जीवनानंद है। एक बार मैंने पूछा था, "इतनी बड़ी उम्र में आप लम्बी-लम्बी मुसाफिरी करते हैं, हवा बदलती है, पानी बदलता है, वाहन में भी हैरानी होती है । आपको काफी थकावट मालूम होती होगी !" उन्होंने मेरी बात सुन ली और कहने लगे, "देखो बेटी, भगवान ने पेड़ बनाये। कितने सुन्दर, कितने विविध, कितने उदार ! फिर प्रभु ने निर्माण किया मानव का। पेड़ में एक अपूर्णता थी। उन्हें वाचा न थी और न थी उनमें गति । मानव को वाचा और गति की देवी देन मिली। पेड़ एक ही जगह पर विकसित होते हैं, लेकिन इन्सान चलने-फिरने से पूर्ण होता है । यह ईश्वरी संकेत है। प्रवास से कभी कोई कष्ट या क्लान्ति कैसे होगी ?" की इच्छा होते हुए भी वृद्धावस्था सबके लिए अवांच्छित होती है, लेकिन वृद्धावस्था काकासाहेब के पास आकर कितनी सुन्दर और प्रसन्न हो चुकी है ! एक बार कहने लगे, "वे लोग आये थे । आशीर्वाद मांग रहे थे।" "फिर ?" " फिर क्या ? खूब खूब आशीर्वाद दे दिये । अब तो वह मेरा एकाधिकार है ! आनेवाले सब मुझसे छोटे थे !" अधिकार की बात अगर और कोई करे तो अच्छी नहीं लगती। लेकिन काकासाहेब की बात ही कुछ और है । उनके अधिकार में प्यार ही प्यार है। सत्ता की उग्रता तनिक भी नहीं है । अवस्था के साथ शरीर की शक्ति, क्षमता कम होती है, इस वास्तविकता का स्वीकार भी वह कितनी आसानी से करते हैं ! श्रवण शक्ति कम होने लगी तो कहते थे, “अब तो मैं आधा योगी बन चुका, किसीकी सुनना नहीं और सबको निःशंक सुनाता हूं !" कई साल से एक ही कान से सुन सकते थे, अब वह कान भी छुट्टी कर गया ! मैं मिलने गयी तो छोटी८६ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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