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________________ सदा तैयार मिलते हैं । कोई मनोहारी कली, कोई अर्ध विकसित गुलाब, नयनाभिराम पुष्प गुच्छ, सुन्दर क्रोटन का असाधारण नमूना - जो भी दिखाओ, वह आकर प्यार से देखते हैं और रंग तथा सुगंध को सराहते हैं । ऐसे वनस्पति जीवन के हर पहलू पर उन्हें जानकारी दो तो खुश हो जाते हैं। इतना ही नहीं, मेरा ग्रंथ पूरा होने पर कितने प्रेम से और विस्तार से प्रस्तावना लिख दी, जो मेरे लिए उत्तम तोहफा उपहार था। इसी किताब को हिन्दी में स्थान दिलाने के लिए उन्होंने प्रयत्न किया । अखिल भारत नयी तालीम सम्मेलन टिटाबर में हुआ था। अकबरभाई मदीना छोटे अनवर के साथ काकासाहेब के पास गये। दूसरे सज्जन बैठे हुए थे। हमें देखकर कहने लगे, "पक्के गुजराती हैं न ?” कुटुम्ब मातृभाषा, लिबास, रहन-सहन सब गुजराती था। हां, स्नेही-संबंधी, रिश्तेदार - मेहमानों के साथ आसानी से हिन्दुस्तानी बोल लेते थे । अंग्रेजी, फारसी, उर्दू साहित्य ने हमें इन भाषाओं के प्रचलित शब्दों की भेंट दी और गीता - कुरान को मूल स्वरूप में समझने के लिए संस्कृत- अरबी का थोड़ा-सा अभ्यास किया। इसमें से दो बड़ी जबानों का माधुर्य हमारी बोली को ठीक-ठीक मिला। इस सबब से मेरे लेखन में विदेशी शब्द आ जाते हैं, मगर वे सब सहवास से देशी बन गये हैं और काकासाहेब ने उनके उपयोग को मंजूर किया है । काकासाहेब एक दफा अमरेली तशरीफ लाये थे । मेरी इच्छा उन्हें अपने गांव तरवडा ले जाने की थी । उनसे अर्ज की तो फौरन मंजूर कर लिया । मगर भाग्य को नाचने की आदत होती है ! कोई सवारी नहीं मिली। मन की बात मन में ही रह गयी । मेरे बेटे चि०सलीम के छोटे असीम ने कल ही अपनी 'पांचवीं गुजराती' मेरे सामने रख दी और खुश होकर कहा, "बापूजी, तुम जिनके बारे में लिख रहे हो, वह तो इस चित्र में बच्चे बनकर, कान के मोती पकड़कर, दायांबायां हाथ हिलाते बैठे हैं।" देखकर मैं भी खुश हो गया कि काकासाहेब कैसे अपनी युक्ति आजमा रहे हैं ! बाल दत्तु में बुद्धि की जो चमक थी, वह बढ़कर बुजुर्गी में कितनी क्षितिजें पार कर रही है ! कभी वृद्धों को आदर देने की बात शुरू करते हैं तो कभी निरामिषाहार का अपना आग्रह रखते हुए, आमिषाहार के प्रति 'सूग' (घृणा) छोड़ने की बहस का आरम्भ करते हैं ! कभी विदेश में रहनेवालों को तन-मन-धन आत्मीयता देने का सुझाव पेश करते हैं तो कहीं प्रवास की अद्भुत स्वानुभव - कथाएं सुनाते हैं । मराठी मातृभाषा होते हुए भी गुजराती साहित्य को कितना समृद्ध किया है ! बड़ौदे की सेण्ट्रल जेल में स्व० हरिप्रसाद - भाई भट्ट, पुरुषोत्तमभाई जोशी और मैंने कारावास अधिकारी की मंजूरी लेकर, खाली पागलखाने के एकांत का लाभ लेकर काकासाहेब के साहित्य का वाचन किया था। काकासाहेब का मिलन कभी शिविर में हो जाता था और नये विचार, नये दृष्टिकोण प्राप्त करके विद्यार्थी और शिक्षक दोनों अपनी संस्था में वापस जाते थे । काकासाहेब का ज्ञान विशाल है और उनका व्यक्तित्व बहुत ऊंचा है। जो भी उनके पास आता है, वह स्वयं ऊंचा उठता महसूस करता है। ऐसे हैं काकासाहेब ! O व्यक्तित्व : संस्मरण | ८५
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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