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________________ सी स्लेट और बत्ती मेरे हाथ में दे दी और कहा, "जो भी कहना हो, लिख दो। अब मैं 'पूर्ण योगी' हूं ! सुनना बंद है । अब चिंतन करता हूं। आकाश-नक्षत्रों के बारे में खूब सोचा है। अब वह पुस्तक लिखवा लूंगा !" मैं उनसे कहने गयी थी, "अब मैं थक गई, मुझसे कुछ नहीं होगा।" लेकिन काकासाहेब का शुभसंकल्प सुनकर लज्जित हो गई। निराशा, थकावट ! उनके पास ऐसे दुर्गुण फटक ही नहीं पाते। सदानंदिनी वत्सल-मूर्ति सरोजबहन की प्रेमपूर्ण बातें और काकासाहेब के प्रत्यक्ष आनंदरूप आस्तित्व में निराशा लोप हो जाती है। ___काकासाहेब की स्मरणशक्ति अद्भुत थी। वह भी अब विदा ले रही है । अपने परिचितों से काकासाहेब कह देते हैं, "अपना पूर्ण परिचय लिखकर सरोज को दे दीजिये। अगर मैं भूल जाऊं तो वह पढ़कर याद कर सकें।" ___ बापू और गुरुदेव रवींद्रनाथ दोनों का शुभमिलन काकासाहेब के व्यक्तित्व में है। बापू की कार्यक्षमता अपूर्व थी। निर्मलता के वह आग्रही थे। साथ-साथ अनासक्त विरक्ति और असंग्रह का आग्रह भी कम नहीं था। गुरुदेव कवि थे। निरामय सौंदर्यासक्ति उनकी स्वभावगत विशेषता थी। काकासाहेब स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी रहे। अनासक्त भी, लेकिन सौंदर्य-प्रेम से उनका व्यक्तित्व परिपूर्ण है। उनकी आंखों पर शल्यक्रिया हो चुकी थी। पूरे तीन मास तक आंखें बन्द थीं। जब पट्टी खुली, मैं मिलने गई। मेरे कान में मोती के कर्णफूल थे। उनकी निर्मल दष्टि कर्णफल पर पडी और आनंद से कहने लगे, "मोती की सुन्दर रचना देखकर आज बडा संतोष हआ। शल्यक्रिया होने से पहले एक बहन मिलने आयी थी। मीनाकारी के रंगारंग में 'मोती डालकर कर्णफल बनाये थे। कितनी विसंगति ! आंखें बन्द थीं तब बार-बार सोचता रहा, क्या स्त्री भी मुक्तामणि का उपयोग रसिकता से नहीं कर सकती...आज तेरा अलंकार देखा।...संतोष है।" काकासाहेब को मिलती हूं तब जीवन का पूर्ण विकसित स्वरूप दिखाई देता है। औपचारिकता के कोई बंधन परिपक्व जीवन का स्पर्श नहीं कर पाते ! एक संपूर्ण, सभर, स्थितप्रज्ञ और क्रांतदर्शी कविआत्मा के सहवास से हमें भी मिलती है अपूर्व समृद्धि ! हिमालय और काकासाहेब यशोधरा द्विवेदी श्रद्धेय काकासाहेब के साथ परिचय होने को मैं ईश्वर की देन समझती हैं। मेरे माता-पिता के देशभक्ति-पूर्ण विचारों के कारण मेरी पढ़ाई (मैट्रिक परीक्ष। तक) घर पर ही हुई। पिताजी के प्रवास के शौक के कारण उनके साथ हिमालय जाने का सुअवसर मुझे बचपन से ही प्राप्त हुआ और तब से लेकर आज तक हिमालय के प्रति मेरा एक विशेष प्रकार का लगाव और आकर्षण है। साल में एक बार अगर हिमालय के दर्शन न हों तो मैं बेचैन हो जाती हैं। मेरे माता-पिता ने कुछ अनोखे ढंग से मुझे पढ़ाया। मेरी माताजी ऐतिहासिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि पुस्तकें पढ़ने के लिए मुझे दिया करती थीं और इस प्रकार सब विषयों की ओर मेरी रुचि जाग्रत होती थी। व्यक्तित्व : संस्मरण | ८७
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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