________________
संस्थापक और संचालक बापूजी के सामने ही रखा था, बल्कि पारिवारिक निकटता के आधार पर हमारे पिता - काका आदि को खबर भेजी थी कि यदि वे अपने कुटुम्ब से दो छात्रों को ऊंची पढ़ाई के लिए विदेश भेजना चाहें तो उनकी पढ़ाई का दो-चार वर्ष का सारा खर्च और वहां तक जाने और लौटने का किराया भी वे देने को तैयार हैं। उनके रोजगार में काफी मुनाफा होने से वे सज्जन विद्या-क्षेत्र में दान करना चाहते थे।
उनसे पत्र-व्यवहार चला। मेरे सबसे छोटे काका श्री जमनादास खुशालचन्द गांधी ने इच्छा व्यक्त की कि वह लंदन जाकर ढाई-तीन वर्ष की पढ़ाई पूरी करेंगे। साथ ही गांधीजी और राष्ट्रीयशाला के आदर्श का पालन भी करेंगे। इंग्लैंड में पढ़ाई कितनी भी करें, डिग्री नहीं लेंगे, इस शर्त पर भी उन महानुभाव ने मेरे पिता काका को उत्तर दिया । उनको कोई आपत्ति नहीं थी । पढ़नेवाले विद्यार्थी स्वयं सन्तुष्ट होकर जो चाहे पढ़कर लौट आयें तब तक का पूरा खर्चा वह देंगे ।
जब बात यहां तक पहुंच गई तो मेरे काका जमनादास गांधी ने मुझसे कहा, "तू भी मेरे साथ चल । और कुछ नहीं तो लंदन में दो-ढाई वर्ष रहने से अंग्रेजी तो बढ़िया हो जायगी। फिर स्वदेश लौटकर देश सेवा के काम में बढ़िया अंग्रेजी बड़ा लाभ पहुंचाएगी। वहां की कोई परीक्षा तू पास न कर सके तो कोई चिन्ता नहीं ।"
मैंने उत्तर दिया, "प्रस्ताव तो बहुत अच्छा है। जी करता है कि चलूं, लेकिन मैं आपके साथ नहीं जाऊंगा। हम लोग यहां न हों और बापूजी कोई बड़ा काम उठायें अथवा उनका स्वास्थ्य देश की चिन्ता में बिगड़ जाय तो दूर इंग्लैंड में बैठे-बैठे हम बहुत दुःखी हो जायेंगे ।"
मेरी बात सुनकर काका ने मुझसे और कुछ दिन सोचने को कहा। मैं सोचता रहा। मन में आया कि संस्कृत में कच्चा हूं तो अंग्रेजी पक्की करने क्यों विलायत जाऊं ? वहां से लौटने पर विनोबा के पास संस्कृत पढ़ने का मेरा यह सिलसिला फिर जुड़ पायेगा, इसका क्या भरोसा ?
मैंने न जाने का निश्चय कर लिया और इसकी सूचना जमनादासकाका को दे दी। उन्होंने मेरे मातापिता को यह बात कही। पर इस विषय में आगे कोई बातचीत घर में नहीं हुई। कई दिनों तक सब मौन रहे ।
एक दिन जमनादासकाका ने मुझसे कहा, "तू नहीं चलता है तो फिर तेरी काकी (अपनी धर्म पत्नी श्रीमती मेवाबहन गांधी) को विलायत पढ़ने ले जाता हूं।"
मैंने कहा, "ठीक है, बहुत अच्छा होगा ।"
अपने शिक्षा गुरुओं को जब मैंने अपनी घरेलू अंतिम बात सुनाई तो विनोबा ने कहा, "इस निश्चय से तेरी पढ़ाई गहरी बनेगी। अंग्रेजी में लिखा तू भले ही न पढ़ सके, पर संस्कृत में तर्कशास्त्र मैं तुझे सिखाऊंगा ।"
काकासाहेब को मैंने अपना निर्णय बताया तो उन्होंने विश्वास दिलाया कि तेरे इस निर्णय से मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई। मुझे पछतावा न हो, यह मुझे विशेष ध्यान में रखना होगा। भूगोल, इतिहास, गणित और अन्य विज्ञान में तुमको ऊंची पढ़ाई करने में रुकावट न आये, यह देखना मेरा काम है। अंग्रेजी न जानने के कारण भविष्य में तेरा काम कभी नहीं रुकेगा । अगर ऐसा संकट आया तो मैं साथ दूंगा । तुझे रास्ता बताऊंगा । इसके बाद, जैसा अनुमान था, बापूजी ने एक के बाद दूसरा बड़े-बड़े काम उठाये। लोकमान्य तिलक ने चिरविदा ले ली। "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है," यह गूंज उन्होंने अंतिम सांस तक सुनाई। गांधीजी बोले, "मैं स्वराज्य लेकर रहूंगा।" फिर तो दिन-ब-दिन स्वराज्य का आंदोलन बढ़ता ही गया। सरकार आंदोलन व्यक्तित्व : संस्मरण / ८३