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मेरे जीवन के दिशा- दर्शक
प्रभुदास गांधी
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समय ठीक याद नहीं आ रहा है। संभवतः असहयोग आन्दोलन के डेढ़ वर्ष पहले का समय रहा होगा। पहला विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था । भारत के नौजवान उन दिनों अपने देश के वीर-वीरांगनाओं की गाथाएं पुनःपुनः जोरों से सुनते-सुनाते थे, जैसे झांसी की रानी, खुदीराम बोस, वीरेन्द्र आदि बाहर के वीरों में नेपोलियन बोनापार्ट, कैंसर, गैरीबाल्डी, विलियम टेल, वाशिंगटन, लेनिन आदि के नामों से प्रेरणा लेते थे । सोचते थे, भारतमाता के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने के सिलसिले में हमें भी अवश्य ऐसा अवसर मिलेगा, जब हम अपना तन, मन और सब कुछ देश के लिए न्योछावर कर देंगे। ऐसी बातें हो रही थीं, जब मैं अहमदाबाद की साबरमती के पश्चिम किनारे पर राष्ट्रीयशाला में पढ़ता था । इस राष्ट्रीयशाला का यह विद्यालय सत्याग्रह आश्रम का एक विभाग था, जिसे पूज्य मोहनदास करमचन्द गांधी ने चला रखा था। उस आश्रम विद्यालय के आचार्य थे काकासाहेब कालेलकर । प्राध्यापकों में विनोबा, मशरूवाला, नरहरिभाई पारीख, अप्पासाहब पटवर्धन, जुगतरामभाई दवे आदि राष्ट्र के स्वयंसेवक और विपुल विद्वत्ता वाले शिक्षा गुरु थे।
एक दिन पढ़ाई का समय समाप्त हुआ। आश्रम के संध्या के गृह कार्य, कृषि कार्य इत्यादि के लिए विद्यार्थी और अध्यापक भी अलग-अलग टोलियों में भिन्न-भिन्न श्रमकार्य करने लगे। इस प्रकार के काम से लौटने की घंटी दूर से सुनाई दी तब आश्रम के बीच से जेल जानेवाली सड़क पर चलते-चलते मैंने काकासाहेब से प्रश्न किया, "काकासाहेब, आचार्य और शिक्षक कुछ करने को कहें, उसका पालन करना विद्यार्थी का धर्म है, यह बात तो समझ में आती है, लेकिन पिता-माता इत्यादि जो कहें, उस बात का पालन करना भी विद्यार्थी का धर्म है क्या ? जो पुत्र पन्द्रह-सोलह की आयु का हो गया है, उसे अभिभावक की बात अपने लिए अच्छी नहीं लगती, फिर भी उसे उस आज्ञा का पालन क्यों करना चाहिए ? आचार्य और शिक्षक गुरु है तो पिता को क्यों गुरु समझा जाय ?"
काकासाहेब ने मेरा प्रश्न बहुत धीरज से सुना । कुछ देर सोचते रहे। फिर उन्होंने जवाब दिया, "गुरु का आदेश मानना यह धर्म स्वीकृत हो गया तो उसी के साथ पिता का कहना मानना भी स्वतः सिद्ध है।"
“क्यों ?” मैंने पूछा ।
" इसलिए कि पिता-माता ईश्वर के दिये हुए गुरु हैं। इसी कारण उन्हें और भी ऊंचा गुरु का पद दिया जाता है। वहां लड़कों या विद्यार्थियों को चुनने का अवसर ही नहीं होता। इसी कारण पिता-माता आदि भी गुरु ही हैं।"
इतनी बात होते-होते दूसरा कार्यक्रम सामने आ गया और चर्चा वहीं समाप्त हो गई।
चार-पांच दिन तक मैं उस बारे में सोचता रहा। मन में कुछ स्पष्टता होती ही नहीं थी। अधिक गहराई से सोचने पर मन और उलझता ही जाता था।
उधर काकासाहेब ने अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहा। शायद सोचते होंगे कि लड़का अपने-आप चर्चा करेगा । उनको पता था कि मेरे समक्ष समस्या क्या है । बात यह थी कि एक लखपति ने दो छात्रवृत्तियां देने का प्रस्ताव रखा था। वह प्रस्ताव राष्ट्रीयशाला के आचार्य के सामने नहीं रखा था, न सत्याग्रह आश्रम के प्रधान
८२ / समन्वय के साधक