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बात को समझने की कोशिश करता था। समय गुजरता रहा। ऐसे कई मौके आये जब कमीशन के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के व्यवहार के कारण मन दुःखी हो उठा और इसी हालत में दो-चार बार मैं काकासाहेब के सामने रो भी पड़ा। काकासाहेब मुझे समझाते थे और उधर अधिकारियों से भी अपने ढंग से बात करते थे । काकासाहेब का यह सान्निध्य मेरा निर्माण करने में सहायता दे रहा था। इसी बीच सन् १९५४ में एक दिन जयपुर से तार मिला कि पिताजी का स्वर्गवास हो गया ।
मैं चुपचाप वह तार लेकर सरोजबहन के पास पहुंचा। तार उनके हाथों में थमा दिया। उन्होंने तार पड़ा और मुझे अपने पास बिठाकर छाती से लगा लिया। स्नेह और सहानुभूति का इतना सा सहारा पाकर मन की वेदना का बांध टूट पड़ा। कुछ देर रोता रहा, फिर सरोजबहन काकासाहेब के पास गई। उन्होंने उनको यह खबर दी। काकासाहेब ने मुझे बुलाकर कहा, "मेरे साथ घूमने चलो।" मैं साथ हो लिया। घूमतेघूमते बोले, "देखो पदम, दुनिया से किसी भी व्यक्ति के माता-पिता अमर नहीं होते। यह सृष्टि का नियम है कि साधारण तौर पर आयु के साथ मृत्यु आती ही है। आदमी को माता-पिता का साया सुरक्षा की भावना देता है और इसीलिए वह उनकी मृत्यु पर अपने को असहाय और असुरक्षित समझने लगता है। इसीलिए उसको कष्ट होता है । तुम्हारे पिताजी चले गये, लेकिन मैं तो हूं।"
काकासाहेब के ये शब्द कानों में पड़े कि जादू की भांति आंखों का पानी थम गया। ऐसा लगा, मुझे पिताजी मिल गये । वह दिन मेरे जीवन का स्मरणीय दिन हो गया। तब से आज तक बराबर ऐसा लगता रहा है कि मेरे सिर पर पिता का साया बराबर बना हुआ है ।
अब २५ वर्ष बीत गये। इन पचीस वर्षों में काकासाहेब से अनेक बार अनेक अवसरों पर मार्ग-दर्शन मिला है और ऐसा कभी नहीं लगा कि मैंने अपने पिता को खोया हो ।
जो संकल्प लेकर काकासाहेब के पास गया था, उसको पूरा करने में काफी हद तक मुझे सफलता मिली । कमीशन के काम के बाद मैंने लगभग एक वर्ष 'अखिल भारतीय आदिम जाति सेवा संघ' में काम किया और उसके बाद राजस्थान के तत्कालीन समाज कल्याण मंत्री के प्रयास से राजस्थान में पिछड़े वर्गों की सेवा करने का मौका मिला। फिर मैंने राज्य के समाज कल्याण विभाग में सहायक निदेशक के पद का कार्यभार सम्भाल लिया और कोटा-बून्दी- झालावाड़, सवाई माधोपुर और भरतपुर जिलों में समाज कल्याण कार्य को संचालित करने का दायित्व मेरे सिर पर आया। गांवों में घूमता रहा और कार्य करता राज्य सेवा में होते हुए भी अपने बड़े भाई और पूज्य पिता काकासाहेब के पास रहकर जो कुछ विचार और संस्कार मैंने पाये थे, उनके कारण अपने आपको कभी भी राज्य का अधिकारी नहीं समझा। हां, मन में यही भावना रही कि मैं जनसेवक हूं। उस रूप में राज्य सेवा का अवसर मिला है। जो भी कार्य करने को मिलता, उसे जीवन के एक मिशन के रूप में समझने की कोशिश की और यह इच्छा रही कि मेरे पास आनेवाले गरीब से गरीब तथा दुःखी से दुःखी व्यक्ति का दुःख में जल्दी से जल्दी पूरी सहानुभूति के साथ दूर कर सकूं ।
ईश्वर से प्रार्थना है कि काकासाहेब द्वारा प्रदत्त संस्कार जीवन के अंतिम क्षण तक बने रहें। O
व्यक्तित्व : संस्मरण / ८१