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________________ साहित्य के साथ तद्रूपता प्रेमा कंटक OO. "मेरी मृत्यु मर गयी, मुझे बना दिया अमर । " - संत तुकाराम आचार्य काकासाहेब कालेलकर साहित्य सेवी हैं । कविहृदय हैं, महात्मा गांधी के सत्याग्रहाश्रम में वर्षों तक रहकर उन्होंने समाजसेवा की दीक्षा ली है। लेकिन मुख्यतः वह लेखक और चिंतक ही रहे हैं। जीवन के प्रेमी होने पर उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करना और महात्माजी के सिद्धान्त तथा संदेश को साहित्यिक भाषा में समाज के सामने पेश कर तपस्या का आनन्द सिद्ध करने में वह सफल हुए हैं। उनका साहित्य गुजराती, हिन्दी तथा मराठी भाषाओं को समृद्ध बनानेवाला है । युवावस्था में उनको तपेदिक हुआ था । उस व्याधि से बच गये। हमारे लिए परम सौभाग्य की बात है कि वह आज हमारे बीच हैं । सन् १९७४ के दिसम्बर में वह यहां महिला सम्मेलन के उद्घाटन के लिए आये थे। उस समय स्वास्थ्य थोड़ा बिगड़ा था, लेकिन शरीर दुबला होने पर भी बौद्धिक और मानसिक शक्तियां अच्छा काम देती थीं। उसके बाद एक बार मैं उनसे बम्बई में मिलकर आई थी। तब वह ठीक से सुन नहीं सकते थे । अपना सवाल या जवाब लिखकर उन्हें देना पड़ता था। जो हो, उनका जीवन तो कब का कृतार्थ हो गया है। उनके लिए अब कुछ करने को बाकी नहीं रहा है । अपने साहित्य के द्वारा वह इस संसार में अमर हो गये हैं । आजकल भी काकासाहेब पढ़ते रहते हैं और फिर पढ़ा हुआ भूल भी जाते हैं। लेकिन पठन में समाधि लग जाने जितनी अनुकूलता भगवान ने उन्हें दे रक्खी है, यह भी उसकी कृपा समझना चाहिए। ऐसी अवस्था में भी शान्ति मिल सकती है । जिन्होंने उनके साहित्य की ताज़गी, मौलिकता, माधुर्य आदि विशेषताओं के दर्शन किये हैं, उनको समाधान होगा कि जीवन के उत्तरार्द्ध में भी वह साहित्य के साथ तद्रूपता पा रहे हैं । O मेरे विनम्र प्रणाम राधिका Oo सोलह साल विदेश में रहने के बाद मैं भारत लौट आई। जो भावनाएं और आदर्श मेरे दिल में देश के लिए बसे हुए थे, उनकी पहली कसौटी तो कॉलिज में ही हो गई। क्या यही सचमुच भारत था, यही देश की संस्कृति थी, जो कि नई पीढ़ी को सौंपी जा रही थी, और जिसके गौरव से हमारे दिल रोशन हो जाते थे ? मेरी उमंग की लहरों में हताशा का तूफान उठा। मेरे सच्चे भारत के तट पर मैं कब पहुंच पाऊंगी ? कौन-सी दिशा में उसे ढूंढ़ ू ? अंग्रेजों से तो स्वतंत्रता पा ली, पर अब इस अंग्रेजियत से कब छुटकारा होगा ? आदर्श कोई मृगतृष्णा नहीं है । यह एक वास्तविकता है, जिसके बल पर हम खड़े रहते हैं और जिसके सहारे सम्पूर्ण जीवन की घटनाओं को झेल सकते हैं । ७८ / समन्वय के साधक
SR No.012086
Book TitleKaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain and Others
PublisherKakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
Publication Year1979
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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